Tuesday, September 14, 2010

अक्स..

मै जानता हूँ के मै सबसे अलग हूँ.. पर सबसे अलग बन नहीं पाता.. बनू तो कैसे बनू....
मैंने देखा है मेरी सोच को औरों से अलग... पर सबसे अलग हो नहीं पाती... है तो कैसे है..
ख़याल की मेरे सूरत सबसे जुदा है... पर सबसे अलग दिखती नहीं... है तो कहाँ है...
रिश्तों की परिभाषा मेरी औरों से हटके है.. पर औरों से अलग हो नहीं पाती... हो तो कैसे हो...
अजीब मंज़र अक्सर मै देखता हूँ...
मेरा अक्स और मै एक नहीं...
ये किसकी परछाई है हम दोनों में..
कितनी कोशिश की हटाने की पर उसकी गहरी छाप मेरे अक्स पर बढती ही जाती है..
कभी आके तुम आईने के सामने खड़ी हो जाओ...
के मै मुझसे मिल जाऊं...

Monday, September 13, 2010

रिश्ता...

सदियों से देखा है हमेशा लड़का लड़की का हाथ मांगता है...
पर इनकी कहानी में बात जरा उलटी है..
लड़का जरा शर्मीला है और लड़की बेखौफ्फ़...उन दोनों की रिश्ते की बात बोहोत दिनों से चल रही है...
वोह गुस्से में आकर उसपे आग बरसाता रहा...
और एक दिन उठ के वोह उसके बाप से उसका हाथ मांगने चली ही गयी...
बांप ने पुछा तो परदे के पीछे खडा शरमाया और अन्दर भाग गया...
आज सुबह सूरज भी बादलों के परदे के पीछे कुछ इसी तरह शरमाया था.. धरती को देख कर...!!!
अजीब रिश्ता है... समाज से अलग.. पर कितना सच्चा... 

जमीन और आसमां

 देखा जाए तो जमीन और आसमां में बोहोत फर्क है..
पर गौर से देखो तो कुछ भी नहीं..
दुनिया जैसे कोई बर्तन हो और आसमां ने जैसे उसे ढक लिया है..
ताकि इंसानियत की भांप बनी रहे ज़िन्दगी की लौ पर...
ऊपर भी लोग मुसाफिर है जो बादलों पे अपने कबीले बना के बस चलते रहते है..
वहाँ भी किसी बेखौफ्फ़ सितारे के मरने पे बारिश बहाते है...
चाँद की मोहब्बत में भी कोई तो ज़रूर तड़पता होगा...
और सूरज को पाने की आशा किसी के दिल में पनपती होगी..
कौमी दंगो में वहाँ भी बिजलियाँ गिरती है...
और हर शाम सूरज के डूबने पर खामोशी और मातम होता है..
वहाँ के डर और खौफ्फ़ भी कितने हमसे मिलते है...
इसीलिए शायद रोज़ रात को चाँद का 'night lamp' लगा कर..
हर बादल के बाहर एक सितारा पेहेरेदारी करता है के कही कोई आवारा उल्का आके लूट न ले...
सच में.. सितारों के आगे जहां और भी है!!!

Thursday, September 9, 2010

बीमारी...

इस बिमारी का 'virus' हर जगह फैला हुआ है...
ढलते सूरज की खामोश साँसों में...
उगते चाँद की मदहोश रोशनी में...
नाज़ुक बेबाक अदाओं में...
सुरमई आँखों की गहराई में...
खूबसूरत लफ़्ज़ों में...
इसके लक्षण भी बड़े ही अजीब है...
बेखुदी सी छाई रहती है..
आँखों में एक चमक रहती है...
मुस्कुराहट चेहरे से जाती ही नहीं...
एक बार लग जाए तो जान भी ले लेती है...

आते जाते यूँही किसी हवा के झोंके की तरह यह विरुस छु लेता है और दुनिया ही बदल देता है..
चुपके से लोगों के दिल में घर बना कर घूमता रहता है रगों में...
चाहो तो भी नहीं बच सकते अब..

इश्क की बिमारी ने अब महामारी का रूप ले लिया है!!!!*

* यह बिमारी छुने से फैलती है: सरकार द्वारा जनहित में जारी...

Saturday, August 28, 2010

एहसास....

अक्सर रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में एहसास मुझे किसी साए की तरह छु जाते है...
और सेहेमे से यूँ सिने से लिपटे रहते है जैसे कोई घबराया सा बच्चा अपनी माँ के सिने से लिपटे...
मै उनको जरा धीरज दूँ इतने में दिमाग में बस जाते है...
और कहते है की हमें किसी महफूज़ कागज़ पे उतार दो...
हर एहसास अपने साथ कई कडवे मीठे जजबात ले आता है...
और जिद पे अड़ जाता है के इन्हें महसूस करो...
और कुछ दिन मेरे जिस्म में तैरते रहते है जब तक के उनका जी नहीं भरता...
मेरे जिस्म पे घिनोने दाग और मेरी रूह पे अपनी एक छाप छोड़ जाते है...
जैसे मेरे जिस्म को 'hijack' कर लिया हो...
कितनी मर्तबा कोशिश की इन्हें समझाऊं के तुम्हारा कोई वजूद नहीं...
मुझ पे हस के कहते है के जब तक हमको तुम मुक्त न करो तब तक तुम भी इस जाल में फसे रहोगे...
इन एहसासों से शापित हूँ मै....
इस श्राप से कब मुझे मुक्ति मिलेगी?

सुबह...

कभी कभी सावन के महीने में सुबह ऐसी निकलती है...
के जैसे कल रात के साथ देर तक बात करके सुबह जल्दी उठी हो...
अभी अभी नहा के बाहर आई हुई सी लगती है और जिस्म अभी भी सुखा नहीं...
हलकी हलकी सी बूंदे गिरती रहती है मानो आसमान पर अपने कपडे सूखने के लिए रक्खे हो...
एक कोहरा सा छाया रहता है... शायद जिस चूले पर नहाने का पानी गरम किया था...
उसको बुझाना भूल गयी हो...
एक सौंधी सी हवा गुज़रती है जैसे किसी 'hair dryer' से अपने बाल सुखा रही हो...
साफ़ सफ़ेद बादलों के कपडे पेहेन के निकलती है काम पर...
और सूरज के उठने का इंतज़ार करती है जैसे बस स्टॉप पे कोई बस का इंतज़ार करे...
सूरज के उठते ही दिन के सब काम उसके हाथ पर रख कर....
शाम को लाने आसमान की तरफ निकल जाती है...

Sunday, August 22, 2010

त्रिवेणी...


आज कल उसको भी मॉडल बनना है... हर रोज़ अपना एक नया 'portfolio'  बनाता  है....
शाम को सारे फोतोग्रफेर्स को बुलवाके अपनी खूबसूरत तस्वीरें खिंचवाता है...

सूरज ढलते ढलते आसमान में कितने हसीन रंग बिखेर जाता है...

Saturday, August 21, 2010

guest appearance...

कभी कभी सावन के महीने में बड़ी हैरानी की बात होती है...
शाम को आसमान साफ़ निकलता है और एक ताज़ा नीला रंग उभर आता है जैसे अभी अभी बनाया हो...
सूरज के सुरमई लाल रंग में बादल कुछ 'abstract painting' की तरह नज़र आते है...
सूरज डूबते डूबते एक 'night lamp' की तरह नज़र आता है...
ऊँचे ऊँचे पेड़ खामोश खड़े रहते है इस इंतज़ार में के कब सूरज डूबेगा और नींद आएगी...
ऐसा लगता है के जैसे आसमान के परदे पे मौसमों की फिल्म चल रही है....
और ठण्ड ने जैसे 'guest appearance' किया हो....

गुलज़ार....

देखते ही आपको सादगी का एहसास होता है...
सफ़ेद रंग जो यह आप सजा के चलते हो...
लगता है जैसे सब बिलकुल पाक है...
कोई नज़्म आपकी ग़म के कंधे पे हात रखके सहारा देती है...
जब दिल तनहा हो.. तो कोई शेर आपका महफ़िल सजा देता है...
आपकी लिखी हुई बातें आशिकों का प्यार में हात बटाती है...
भोले भाले सीधे साधे लफ़्ज़ों को बहला फुसला कर कागज़ पर हमेशा के लिए कैद कर देते हो...
जज्बातों को कुछ इस कदर बयान करते हो के जिंदगी बार बार आपको छूके कहती है मुझे भी अपने अन्दर समा लो...
आपकी हर नज़्म से एक सौन्धी सी खुशबू आती है.. जैसे पुरानी किताबों में आती थी...
जिंदगी की हर टूटती शय को आपकी नज्मे जोडती है और हर उभरती शय को जैसे आसमान तक पहुचाती है..
जादूगर लगते हो मुझे....

जिंदगी के कई एहसासों को खूबसूरती से निहार कर जैसे मुर्दा कागज़ में जान फूंकते हो...

Friday, August 20, 2010

मोतिया....

न जाने कितने आँखों के डॉक्टरों को बताया...
पर यह मोतिया बिन्द निकलता ही नहीं...
ऑपरेशन से भी कुछ नहीं होगा यही उनका कहना था...
जब आईने में देखता हूँ तो यूँ लगता है जैसे कोई सफ़ेद धुंदली परछाई घूर के देख रही है...

तेरी सूरत का मोतिया बिन्द आँखों पे छप गया है....

Monday, August 9, 2010

त्रिवेणी...

ऋषियों, सन्यासियों की तरह... 'बुद्धं शरणम गच्छामि' का धीरे धीरे जाप करते हुए वोह बैठे रहते है चरों पहर...
और जब कोई तप भंग करता है तो श्राप देते है जैसे कहीं बिजली गिरी हो...

हवाई जहाज़ जब बादलों के बिच से गुज़रता है तो कितना हिलने लगता है!!!!!....

Monday, July 26, 2010

नज़्म...

एक नज़्म मेरी आवाज़ में कैद है...
कागज़ पे तो मैंने उतार लिया है उसे…
पर अभी भी चिप्पक  के बैठी है मेरे सिने से...
डरी हुई सी है....
फिर कानो पर जब तुम्हारी आवाज़ पड़ी तो मुस्कुराके  के मुझसे बोली...
मेरी मंजिल आ गयी...
मेरी नज़्म को अपनी आवाज़ में कहो कभी...
के नज़्म आज़ाद हो.....

दिल्ली से delhi...

बड़ा ही दिलचस्प शेहेर है दिल्ली..

दिल से इब्तेदा होती है... दिल ही में रहती है... दिलवालों पे इन्तेहा..
कई नाम है इसके...
कोई दिल्ली कहता है और पुराने किले को सलाम करता है...
कोई delhi  कह  कर  मेट्रो  में  सफ़र  करता है...

दिल्ली  ने बोहोत कुछ देखा है.. किसी तजुर्बेकार खिलाड़ी की तरह..

मुघलों की लडाइयां देखि..
मोहब्बत की अंगडाइयां देखि..

कांपती ठण्ड देखि...
पिघलती गर्मी देखि...

ठगों की सफाई देखि...
गुंडों की मनमानी देखि...

ग़ालिब की शायरी को देखा...
चांदनी चौक की चाट को देखा...

अनिल कुंबले के दस को देखा...
ब्लू लाइन की बस को देखा...

जमा मस्जिद की नमाज़ को देखा...
क़ुतुब मीनार की लम्बाई को देखा...

लाल किले पर तिरंगा देखा...
अक्षरधाम पे हमला देखा....

ये सब देख कर दिल्ली थक गयी है... रुक गयी है...
फिर किसी मोड़ पे उसने तुमको देखा...
और जैसे सारे आलम का दिल धड़क उट्ठा...

दिल्ली तुमसे सांस लेती है...
दिल्ली तुमसे आबाद है....

extinct

बाघों की तरह इंसान भी धीरे धीरे 'extinct' हो रहा है...
जिंदगी के शिकारी हमेशा उनकी फ़िराक में रहते है...
किसी को अकाल की गोली लगती है...
किसी को बाढ़ निगल जाती है...
कोई भूकंप के जाल में फस जाता है..
किसी को जिंदगी 'poach' कर लेती है..
इंसानों के दिल-ओ-दिमाग का सौदा किया जा रहा है..
आत्म सम्मानं, सच्चाई को अपने मतलब के लिए बेचा जा रहा है...
सरकार बाघों के लिए 'save tiger' के नारे लगाती है...
'save humans' के क्यों नहीं लगाती?
आओ के बचा ले इस प्रजाति को...
बस अब कुछ ही बचे है...

Sunday, July 25, 2010

conveyor belt

जिंदगी का सफ़र चलता है एक 'conveyor belt' पे जिसका कोई सिरा नहीं...
किसी मुसाफिर की तरह जिंदगी बस आगे सरकती रहती है..
सफ़र में कुछ चीज़ें तुम्हे पुकारती है..
कुछ अधूरी ख्वाहिशें....
कुछ पुरे लम्हे...
कुछ सब्ज़ यादें...
कुछ बेमानी से रिश्ते...
और हर एक मोड़ पर... मील के पत्थर पर बैठे तुम नज़र आते हो
तुम्हे छुने की कोशिश करता हूँ.. पर जिंदगी आगे सरक जाती है...
बोहोत सफ़र कर चूका हूँ मै...
किसी दिन आके मुझे उस 'belt' से उतार लो...
हवाई अड्डे पे जैसे कोई सामान उतारे....

Friday, July 23, 2010

त्रिवेणी....

वो आये... मरने वाले के परिवार के साथ दो तीन दिन आंसू बहाए...
कुछ देर बाद आंसू भी ख़तम हो गए और जिंदगी फिर पहले की तरह चलने लगी...

बोहोत दिन बरसात होने के बाद आज आसमान साफ़ है....

Tuesday, June 22, 2010

तस्वीर...

मैंने तुम्हारा एक स्केच 'frame' करना चाहता हूँ
पर जैसे ही 'frame' करता हूँ...
रंग फिंके पड़ जाते है..
आँखों की चमक उड जाती है...
कागज़ के टुकड़े पत्तो की तरह हवा में बिखर जाते है...
कांच टूट के तिनको में समां जाती है...

सच में... तेरे हुस्न को एक 'frame' में बांधे रखना कितना मुश्किल है...

Thursday, June 17, 2010

रौशन करें कायनात....

देर रात जब बोहोत जोरों से बरसात हो.. 
तो चलेंगे ऊपर बादलों पर...
बादलों पर बैठ के देखे हम निचे की बरसात का नज़ारा.. 
और जब 'street lights' बंद हो जाए मुंबई के 'highway' पर...
तो अपनी परछाई देखे गीली सी रोड पर...
फिर जब सूरज निकले तो कई हज़ार बूंदों की बना के 'water slide'...
कूद पड़े दरिया में छपक के...
और तैरते रहे मछलियों की तरह गहरे दरिया में...
मोतियों की खोज में...
फिर जब बारिश बंद हो और एक मद्धम सी हवा चले साहिल पे...
अपने बदन को सुखाते हुए पड़े रहे आसमान को तकते किनारे पर...
फिर जब दोपहर गुजरे सर पर से किसी परिंदे की तरह और शाम आये थकी हारी काम पर से लौटी औरत की तरह...
गूम हो जाएँ उस सुरमई रोशनी में और दिखाई न दे...
चलो न उसी रोशनी से रौशन करे कायनात और बस मुस्कुराते रहे....
और बस मुस्कुराते रहे...

Saturday, June 5, 2010

पहली बूँद....

आखिर कार वोह आ गयी...
बिजली के तारों से बचते बचाते..
पेड़ों की शाखों से नज़र चुराके...
बादलों के पिंजरे से आजाद...
लम्बी लम्बी इमारतों से कूद के..
घरों के छज्जों से फिसल के....
बारिश की वोह पहली बूँद... कुछ इस तरह आती है ज़मीन पर...
जैसे कोई बच्चा स्कूल से लौटता है और कल से उसकी छुट्टियाँ चालू होने वाली हों...

Saturday, May 22, 2010

change....

अक्सर मैंने देखा है उस नुक्कड़ पे बैठे भिकारी को...
उसके कटोरे में हमेशा उतने ही सिक्के दिखते है...
उसके सामने का रास्ता भी बदल गया लोगों के जूतों के निशान पड पड के...
पर वोह सिक्के उसी तरह हर रोज़ दिखाई देते है...
किसी शेहेर के किसी महान आदमी के पुतले की तरह....

वाकई... 'change'... is the only constant thing in life...

Friday, May 21, 2010

काश...

'काश' ये लफ्झ गर मेरी जिंदगी में आ जाए
सपनो के अधूरे पलों को फिर से सजाया जाए

जिंदगी मेरी लेती एक हसीन मोड़
वो इश्क का गुनाह फिर से किया जाए

मै तुम्हे देख सकता उस सपनो से भरे मंझर में
चलो आज फिर कोई सपना देखा जाए

तन्हाई भरी महफ़िल मेरी झूम उठती तेरी आवाज़ से
कई बातें जो अनकही थी उनको आज कहा जाए

तेरी उस हसीन मुस्कान पे रुक गया था मेरा दिल
चलो आज फिर कोई लतीफा सुनाया जाए

पर यह वक़्त बड़ा बेरेहेम है
चलो आज फिर आँखों को रुलाया जाए...

मौत...

ऐ मौत... तू अब आ ही जा...
अब ये ग़म-ए-दिल बर्दाश्त नहीं होता
मेरी साँसें खड़ी है इस कदर बेक़रार
अब उन्हें ये आना जाना बर्दाश्त नहीं होता...

मेरे जाने की महफ़िल आज भर गयी है..
सब लोग जिंदगी के प्याले के नशे में चूर है
मेरा प्याला दूर उस मैखाने में खाली पड़ा है
उस प्याले का खाली नशा बर्दाश्त नहीं होता...

आज वो भी हमारी महफ़िल में आई है
फिर होटों ने छेड़ी है दीदार-ए-मुस्कान
आँखों में है एक मोती...
उस मोती का दामन पे बिखर जाना.. बर्दाश्त नहीं होता...

यम आया है साकी बनकर इस मैखाने में..
जिंदगी की किताब को बंद कर रहा है
मौत की किताब के पन्ने उलट रहा है
उन जिंदगी के पन्नो का हवा में उड़ जाना बर्दाश्त नहीं होता...

यारों जलाने से पहले मेरे सिने से दिल निकाल लेना..
उस में एक ख्वाहिश अभी भी बाकि है
वोह फिजा बन कर अपनी मंजिल पा लेगी
उस ख्वाहिश का जल जाना बर्दाश्त नहीं होता..

अब मै जल चूका हूँ....
बची है तो बस अस्थियाँ
उनको उस के दर पे छोड़ आओ
अपनी जिंदगी तो कट चुकी तनहा...
उन अस्थियों का तनहा सफ़र बर्दाश्त नहीं होता...

मै और काली रात...

मै और काली रात अक्सर बातें करते है...
तन्हाई को गले लगा के ज़िन्दगी के कुछ पल साथ बिताते है...

रात की खामोशी की धुन को पकड़कर
जिंदगी की गझल लिखते है..

कहीं दूर एक छोटीसी रोशनी को देखकर...
खोये हुए प्यार की याद दिलाते है...

मै उसे अपनी जिंदगी के कुछ पल बांटता हूँ..
और रात अपनी चाँद की रोशनी बखेडके मुझसे बात करती है...

'काश' इस लफ्झ को पहलु में लाकर
माझी के कुछ पलों को बदलने की कोशिश करते है...

फिर कुछ देर रूबरू होने के बाद.. हम जुदा हो जाते है...
नींद तो आती नहीं... बस सुबह की क़यामत का इंतज़ार करते है...

Thursday, May 20, 2010

खामोश पल.....

आज हम बार बार मिल रहे थे...
बुझ गए जो चिराग प्यार के कई अरसों पहले...
वो जल कर बार बार बुझ रहे थे..

नज़रे उठाने की हिम्मत दोनों में नहीं थी...
लब अन्दर ही अन्दर कुछ हिल रहे थे..

उस बिच बाज़ार के शोर गुल में आहिस्ता से..
हमारे साँसों के सन्नाटे बात कर रहे थे...

तुम्हारी हर अदा की नजाकत को आज भी देखते ही लगा..
की कहीं फूल खिल रहे थे...

काश यह बेरेहेम वक़्त वहीँ रूक जाता..
मेरे हाथ उठ के यही दुआ कर रहे थे...

पर मेरी दुआ का कोई असर न था..
धड़कने वक़्त की बेरहमी की याद दिला रहे थे...

फिर कुछ इस तरह देखा तुमने...
माझी के कुछ ज़ख्म सिने पे उभर रहे थे...

तुम्हारी आँखें बता रही थी तुम्हारे दिल का हाल...
कई पल जो साथ बिताये थे आज पलट के सजा दे रहे थे...

कुछ देर बाद हम अपने अपने रास्ते पे निकल पड़े...
हमारे रास्ते न कभी मिले... न मिलने थे....

कमी सी है...

आज कल हर बात में कुछ कमी सी है...
कहने को तो है ग़म पर उसमे भी ख़ुशी सी है...

ढूँढता हूँ आवाजों में तन्हाई...
पर ये  तन्हाई भी सहमी सी है...

वोह भी हमारी तरफ यूँ देखते है..
के उनकी नज़रों में दुश्मनी सी है...

ये फासले हमारे बिच बढ़ ही रहे है...
के उनमे लम्बी दूरी सी है...

आहें भर के गुजारता हूँ रातें...
दिन में भी उदासी सी है...

प्यार मेरा तुम्हारा हुआ नाकाम तो क्या..
मेरे और उपरवाले में आजकल दोस्ती सी है... 

उदास पानी.....

क्या है ये उदास पानी
या है बचपन?... या है जवानी...

बचपन बीत जाता है ख्वाब सजाने में
जवानी बीत जाती है उनको सच करने में
पर ये तो है सबकी कहानी पुरानी
यही है उदास पानी....

बचपन में हर बात की ख़ुशी
जवानी में किसी की ख़ुशी का ग़म
पर ये तो है रीत पुरानी
यही है उदास पानी....

बचपन और जवानी से लढते हुए
आ जाता है इंसान की जिंदगी में बुढ़ापा
पर ये तो है कभी न ख़त्म होने वाली कहानी
बचपन बुढापा जवानी....
यही है उदास पानी...
यही है उदास पानी...

खेल......

बोहोत सारे खेल मै रोज़ खेलता हूँ...
सूरज से 'race' लगता हूँ के तुझसे पहले मै उठूंगा...
धुप को जलाता हूँ की तू चाहे उतने पैत्रें आजमाले...
छाँव तक तो मै पहुच ही जाऊंगा...
दिन से शर्त लगती है रोज़... के तेरे ढलने से पहले मेरे सब काम हो जायेंगे...
शाम के साथ अक्सर ग़ज़लों की अन्ताक्षरी चलती है...
और जब चाँद आये तो उससे 'challenge' करता हूँ की मेरे यार सा तू बन के दिखा....
रात को धीरे से कहता हूँ की कल तुझे फिर सूरज हरा देगा....
इन सभी खेलों में अक्सर मुझे जीत हासिल होती है...
पर कभी कभी एक ऐसा खिलाड़ी है जो मुझे हरा देता है...
तकदीर के बाशिंदे से कभी कभी मैच हो ही जाती है...
पर आजतक में उसे हरा नहीं पाया हूँ...
तकदीर आज तक मुझपे भारी पड़ती है...

Sunday, April 18, 2010

पेहली मुलाक़ात

आज भी सर्दियों का वोह दिन याद आता है.. जब मैंने तुमको पहली बार देखा था...
जब तुम वोह सफ़ेद सलवार-कमीज़ और लहेरिया दुपट्टा पेहेन के घर से निकली थी..
उस दुपट्टे को तुम मफलर की तरह ओढ़ी हुई थी...
ऐसा लग रहा था जैसे दिल्ली की सारी सर्दी सहमी हुई है और उस मफलर से जैसे उसका हौसला बढ़ रहा हो...
तुम्हारे सारे बदन को छुने को जैसे कोहरा बेकरार था...
और तुम कोहरे को हटा के आगे चल रही थी जैसे कोई धुएं को हटाए..
मेरी आँखों को सिर्फ तुम नज़र आ रही थी और मै गा रहा था...
'धागे तोड़ लाओ चांदनी से नूर के... घूंघट ही बना लो रोशनी से नूर के...'

Saturday, April 10, 2010

5 day working..........

कभी कभी दिन भी बड़े आलसी निकलते है...
सूरज ऐसे निकलता है जैसे बादलों की चादर ओढ़ के सोया पड़ा हो...
हवाएं ऐसे चलती है जैसे कोई खाने के बाद टेहेलता हो...
दोपहर ऐसे रुकी रुकी सी लगाती है जैसे शतरंज का खेल....
शाम भी ऐसे आती है जैसे सारा दिन उसने जाग के काटा हो...
और चाँद ऐसे उगता है जैसे बोहोत ज्यादा सोने के बाद नहा के 'weekend' पार्टी में जा रहा हो..
रात ऐसे उतरती है जैसे कोई ख्वाब उतारे अरमानो के साहिल से....
सारे माहोल में एक अजीब सी 'lethargy' फ़ैल जाती है...

आज कल पूरी कायनात का '5 day working' है....

Friday, April 2, 2010

targets........

या खुदा यह तेरा कैसा दस्तूर है....
कोई 'race' में दौड़ता है तो कोई दो कदम चल नहीं पाता....
किसी के पास आलिशान बंगला है और किसी के पास शान की एक झोपडी...
कोई दिन में चार बार खाना खाता  है तो किसी को चार निवाले नहीं मिलते....
कुछ लोगों के पास कपडे रखने के लिए जगह नहीं.. तो कुछ लोगों के लिए कपडे पेहेनना भी एक ख्वाब है....

क्या तेरा भी कोई 'performance appraisal' सिस्टम है?... जो कहता है 'perform or perish'...
क्या तुझे भी 'targets' दिए है?....
शायद सालाना 'targets' हो जाने के बाद तेरी रहमत बंद है....
उफ्फफ्फ्फ़.... 'targets' ने तो खुदा को भी नहीं छोड़ा....

Thursday, April 1, 2010

'haunted'....

आज कल तुम मुझे भूतों की तरह हर जगह नज़र आने लगी हो....
कभी किसी कोने में मुस्कुराते हुए खड़ी होके मुझे देख रही हो...
कभी अचानक आँखों के सामने से गुज़र जाती हो...
कभी तुम्हारी हसने की आवाज़ सुनाई  देती है जैसे किसी हवेली में किसी की आवाज़ सुनाई दे...
कभी लोगो की आवाज़ में तुम्हारी आवाज़ सुनाई देती है....
कभी चुप के से कानो में कुछ कह जाती हो...
खुशबू की तरह तुम्हारा साया मंडराता है मेरे दिल-ओ-दिमाग पर...
मेरा जहां तेरे इश्क से 'haunted' है.....

Monday, March 29, 2010

शाम........

कई बार साहिल पे मुझे शाम मिलती है...
सूरज ऐसे उतरता है साहिल पे जैसे अभी अभी लोकल ट्रेन से उतरा हो...
और चाँद ऐसे निकलता है जैसे किसी 'factory' की 'shift' बदली हो...
पंछी ऐसे उड़ते है जैसे निकले हो 'shopping' पे..
साहिल पर पड़े बड़े बड़े पत्थर घूरते है समंदर को जैसे किसी फिल्म की शूटिंग चल रही हो...
मद्धम से हवा के झोंके चलते है जैसे कहीं दूर कोई ग़ज़ल सुनाई दे...
और डूबते डूबते सूरज, उस दोस्त की तरह जो रोज़ मिलता है...
मुझसे कहता है "मै कल फिर आऊंगा"
और मै उसे अलविदा कहके रात को गले लगाता हूँ...
जैसे सालों बाद कोई स्कूल का दोस्त मिलता है...

Friday, March 19, 2010

'happy journey'

लोकल ट्रेन की हर टिकेट पे लिखा होता है 'happy journey'....
मुझे लगता था की यह बहुत ही अच्छी बात है....
जब दादर स्टेशन पर कदम रखा तो देखा की यह तो मजाक था.....
ट्रेन का भी अपना एक 'sense of humour' है....

Sunday, March 14, 2010

traffic jam....

कभी कभी यूँही बैठे बैठे वक़्त हाथों से फिसल जाता है...
और कभी कभी यूँ तन के बैठ जाता है जैसे कोई जिद पे अड़ा हो..

वक़्त की राहों में भी आजकल "traffic jam" होने लगा है....

Thursday, March 11, 2010

वक़्त.....

 वक़्त गुजरने का जब कोई करे इंतज़ार तो कितना धीरे गुजरता है ये...
आँखे सेकंड की सुई का पीछा करती है...
बार बार नज़र उस मिनट की सुई की तरफ जाती है...
जो लगता है statue बन कर खड़ी हो...

और जब वोह पल सामने आता है...
तो ऐसे लगता है जैसे...
कोई किसी ख़ूबसूरत लड़की का सड़क पर इंतज़ार कर रहा हो..
और वोह आपको बिना देखे बस सामने से गुज़र जाती है...

कितना बेरेहेम है यह वक़्त..
इंतज़ार तो कराता है.. पर सामने आते ही बीत जाता है......

corporate....

कॉर्पोरेट लाइफ भी बड़ी बदनसीब है...

यहाँ 'customer' से ज्यादा ज़रूरी है 'contacts'....
यहाँ 'common sense' से ज्यादा ज़रूरी है 'dressing sense'...
यहाँ 'self-confidence' से ज्यादा जरूरी है 'self-image'...
यहाँ 'working' से ज्यादा जरूरी है 'networking'...
यहाँ 'ability' से ज्यादा जरूरी है 'flexibility'...

कॉर्पोरेट शब्द कहते हुए जब होट गोल हो जाते है.. उसी तरह का एक कुआँ सा लगता...
हज़ारों लोग अपने ख्वाब इस कुँए में डालते है पुरे होने के लिए...
पर यह कुआँ भी है फर्जी.....
किसी आम कुँए में पत्थर डालो तो उसके गिरने की आवाज़ ऊपर तक सुनाई देती है...
यहाँ तो बस चीज़ें गुम हो जाती है... और आवाज़ तक नहीं होती....

Wednesday, March 10, 2010

'मसाला डोसा' - त्रिवेणी

 किसी को मसाला डोसा खाते हुए देखना मुझे बड़ा ही अजीब लगता है...
फोर्क के दांतों से और 'knife' की धार से उसको चिर फाड़ कर खाना अनोखा है....

वाकई...... "man is a social animal"!!!!...

Wednesday, March 3, 2010

"खटमल"

और फिर यूँ हुआ... रात एक खटमल ने जगा दिया...
फिर यूँ हुआ... खटमलों की वोह दरी खुल गयी...
और यूँ हुआ... खुजली की वोह लड़ी खुल गयी...
जागती रही नींद मेरी जागते रहे 'tubelight' की रौशनी के तले...
फिर नहीं सो सके इक सदी के लिए हम दिलजले....

और फिर यूँ हुआ... खटमलों के झुण्ड ने उड़ा दिया...
फिर यूँ हुआ... नींद के नक्श सब धुल गए...
और यूँ हुआ.... गददे थे खटमलों में रुल गए...
चादर को ओढ़े हुए जागते रहे खुजलाते हुए... खटमलों से घिरे....
फिर नहीं सो सके इक सदी के लिए हम दिलजले....

वो और मै.......

उसका दिन कट जाता है और उसे पता भी नहीं चलता
मेरा.... कटता नहीं इन्तेजार मै 

उसकी रात गुज़रती है ख्वाबों के साहिल पे
मेरी रात जैसे किसी भिकारी की नींद रेलवे स्टेशन पे....

उसके कदम जैसे चाँद की परछाई पानी  पर
मेरा कदम जैसे पड़ता हो गोबर पे.....

उसकी पलकें जब झपकती है तो जैसे एक लेहेर उतर आये साहिल पे....
मेरी आँखें जैसे सजी हो मोतिया बिन्द से....

उसकी आवाज़  जैसे गुलज़ार की कोई नज़्म...
मेरी आवाज़ जैसे गा रहा हो कोई बाथरूम में....

उसके ट्रेन का टिकट हमेशा "first A/C"
मेरा टिकट  "wait list" 62 से 42 पे....

उसकी जिंदगी जैसे दादी माँ की कहानी
मेरी जिंदगी जैसे ली हो उधार पे...

उसको को खुदा ने 'customized' बनाया था
और मुझे बना दिया 'made to order' पे....

त्रिवेणी

रोज़ सुबह खुद से यह वादा करता हूँ की आज कुछ लिखूंगा.....
सुबह की धुप सरकते सरकते शाम की तरफ बढती जाती है पर कागज़ पर कुछ भी सरकता नहीं......

तेरे हुस्न को लफ़्ज़ों में बांधना कितना मुश्किल है.......

Tuesday, February 16, 2010

global warming...

पहले जब नानी की कहानी सुनते थे तो ऐसे लगता था की दुनिया कितनी हसीन है..
अब वोह कुछ कहती है तो लोग चिल्लाते है उसपे... वोह डांटती है तो अब गुस्सा आता है..
पहले रिश्तों में एक अजीब गर्माहट पनपती थी... पापा की डांट खाकर जब रूठते थे तब सिर्फ नानी की गोद नज़र आती थी..
अब सिर्फ गरमी पनपती है रिश्तों में...
उफ्फ्फ... "global warming" दिन-ब-दिन बढती ही जा रही है.........

Sunday, January 31, 2010

कभी तो बन तू मेरा साकी

कभी तो नज़र डाल मेरे मैखाने में 
खुल जायेंगे सब दरवाज़े तेरे लिए 
हो जायेंगे मेरे ख्वाब पुरे जो थे बाकि 
कभी तो आ कभी तो आ कभी तो बन तू मेरा साकी

सिने की उलझने सब मिटा दूंगा 
लबों की कपकपाहट को छीन लूँगा 
दो जाम भर के कभी मेरी आँखों में देख 
मेरी जन्दगी में कुछ न रहेगा बाकि 
कभी तो आ कभी तो आ कभी तो बन तू मेरा साकी

मेरा मैखाना तेरे बिना एक कब्र्खाना है 
तू मेरी हाला है , तुने मेरी जिंदगी को बदल डाला है 
सारे जहां में तुझसा न कोई हसीन अब बाकि 
कभी तो आ कभी तो आ कभी तो बन तू मेरा साकी..........

Wednesday, January 27, 2010

एक ख्वाब

रात के दुसरे पहर में मेरी आँख अचानक खुल गयी
खिड़की के बाहर देखा तो बरसात हो रही थी
बूंदे हवाओं से मोहब्बत कर रही थी
बद-ए-सबा में एक अजीब सी ख़ामोशी थी

फिर उस लम्हे की याद मेरे दिल में ताज़ा हो गयी
जब तुम बारिश होने पर अपने घर के आँगन में आती थी
और अपना हाथ बाहर निकल कर खड़ी रहती थी
बूंदे तुम्हारे हाथ से छु  के दिवानो की तरह ज़मीन में मिल जाती थी
कितनी खूबसूरत लगती थी तुम

फिर कुछ उसी लम्हे को दोहराने के लिए
मैंने अपना हाथ खिड़की के बाहर निकाला
देखा तो बरसात बंद हो चुकी थी
शायद तुमने बरसात होने पर अपने आँगन में आना बंद कर दिया है
फिर बरसात हुई मेरी आँखों से और एक बूढी माँ की तरह रात ने मुझे अपनी आघोष में ले लिया.....

"तुम"

तुने मेरे दिल पर मरहम रख दिया
पुरानी ग़म की दीवारों को तुने तोड़ दिया
मैंने तो तुमसे सिर्फ जिंदगी मांगी थी
तुने तो जिंदगी जीने का ढंग दे दिया

इतनी हसीन कैसे हो पाती हो तुम
इतनी नजाकत से कैसे चल पाती हो तुम
जुल्फे तुम्हारी लहराना कही बंद न करदे
इसलिए मैंने हवाओं को कभी न रुकने का इशारा दे दिया

मिले थे हम जहा पहली बार
वहीँ हर रोज़ खिंचा चला आता हूँ
तुम्हारी साँसों की उलझनों को महसूस करता हूँ
तुम्हारे होटों का थरथराना याद आता है
हाय! मैंने अपना दिल तो वही रख दिया

तुम्हारी आँखों की मै क्या मिसाल दू
कत्थई रंग की एक जादुई चीज़ सी लगाती है
घने जंगल सी खामोश और गहरी
मै तुझे जंगलो जंगलो ढूँढता चला गया

लोग कहते है रिंद मुझे
तेरी निगाह-ए-मस्त का हुआ मै कुछ इस कदर दीवाना
मैखानो में जाने की कभी चाह ही नहीं जगी
तुने आँखों से कुछ ऐसा पिला दिया.....  

वोह तीन दिन .......

मिले थे हम अजनबी की तरह 
पर न जाने क्यों तुझ में एक कशिश थी 
होश खो बैठा मै रिन्दों की तरह 
जिंदगी के माइने  बदल डाले तुने मेरे 
मैंने कई ख्वाब सजाये किसी बच्चे की तरह 


पर आज उन ख्वाबो में बची है तो बस 
एक तस्वीर तुम्हारी और जजबात मेरे
एक कश्ती अकेली समंदर में जिस तरह
फिर भी तुमने दिए मुझे जिंदगी के सबसे हसीन तीन दिन 
उन को पाकर मै था किसी व्यापारी जैसा जो बाँट रहा था अपनी दौलत पागलों की तरह 


हर तरफ़ मै फ़ेंक रहा था जजबात 
इस शौक में के कभी तो तुझसे टकरायेंगे 
किसी तेज़ हवा के झोंके की तरह 
पर वोह पहुँचते थे तुझ तक और बिखर जाते थे मिटटी के ढेर की तरह 
शायद मुझ में ही कोई बात न थी जो तुझे याद आये 
पर हो सके तो कभी उन जज्बातों को महसूस कर्क देखना 
आज भी वोह उतने ही बेचेन है किसी के पहले प्यार की तरह...... 

"शुक्रिया"

मै फसा था ग़म से भरे एक समंदर में
तुम अचानक कही से आई,
क्या आँखें थी तुम्हारी!!
उन में एक झिल नज़र आई
कुछ देर के लिए मै उस झील में बस तैरता रहा
कुछ देर बाद देखा तो तुमने मुझे किनारे पे लाके छोड़ दिया था

शुक्रिया तुम्हारा!!!