Saturday, May 22, 2010

change....

अक्सर मैंने देखा है उस नुक्कड़ पे बैठे भिकारी को...
उसके कटोरे में हमेशा उतने ही सिक्के दिखते है...
उसके सामने का रास्ता भी बदल गया लोगों के जूतों के निशान पड पड के...
पर वोह सिक्के उसी तरह हर रोज़ दिखाई देते है...
किसी शेहेर के किसी महान आदमी के पुतले की तरह....

वाकई... 'change'... is the only constant thing in life...

Friday, May 21, 2010

काश...

'काश' ये लफ्झ गर मेरी जिंदगी में आ जाए
सपनो के अधूरे पलों को फिर से सजाया जाए

जिंदगी मेरी लेती एक हसीन मोड़
वो इश्क का गुनाह फिर से किया जाए

मै तुम्हे देख सकता उस सपनो से भरे मंझर में
चलो आज फिर कोई सपना देखा जाए

तन्हाई भरी महफ़िल मेरी झूम उठती तेरी आवाज़ से
कई बातें जो अनकही थी उनको आज कहा जाए

तेरी उस हसीन मुस्कान पे रुक गया था मेरा दिल
चलो आज फिर कोई लतीफा सुनाया जाए

पर यह वक़्त बड़ा बेरेहेम है
चलो आज फिर आँखों को रुलाया जाए...

मौत...

ऐ मौत... तू अब आ ही जा...
अब ये ग़म-ए-दिल बर्दाश्त नहीं होता
मेरी साँसें खड़ी है इस कदर बेक़रार
अब उन्हें ये आना जाना बर्दाश्त नहीं होता...

मेरे जाने की महफ़िल आज भर गयी है..
सब लोग जिंदगी के प्याले के नशे में चूर है
मेरा प्याला दूर उस मैखाने में खाली पड़ा है
उस प्याले का खाली नशा बर्दाश्त नहीं होता...

आज वो भी हमारी महफ़िल में आई है
फिर होटों ने छेड़ी है दीदार-ए-मुस्कान
आँखों में है एक मोती...
उस मोती का दामन पे बिखर जाना.. बर्दाश्त नहीं होता...

यम आया है साकी बनकर इस मैखाने में..
जिंदगी की किताब को बंद कर रहा है
मौत की किताब के पन्ने उलट रहा है
उन जिंदगी के पन्नो का हवा में उड़ जाना बर्दाश्त नहीं होता...

यारों जलाने से पहले मेरे सिने से दिल निकाल लेना..
उस में एक ख्वाहिश अभी भी बाकि है
वोह फिजा बन कर अपनी मंजिल पा लेगी
उस ख्वाहिश का जल जाना बर्दाश्त नहीं होता..

अब मै जल चूका हूँ....
बची है तो बस अस्थियाँ
उनको उस के दर पे छोड़ आओ
अपनी जिंदगी तो कट चुकी तनहा...
उन अस्थियों का तनहा सफ़र बर्दाश्त नहीं होता...

मै और काली रात...

मै और काली रात अक्सर बातें करते है...
तन्हाई को गले लगा के ज़िन्दगी के कुछ पल साथ बिताते है...

रात की खामोशी की धुन को पकड़कर
जिंदगी की गझल लिखते है..

कहीं दूर एक छोटीसी रोशनी को देखकर...
खोये हुए प्यार की याद दिलाते है...

मै उसे अपनी जिंदगी के कुछ पल बांटता हूँ..
और रात अपनी चाँद की रोशनी बखेडके मुझसे बात करती है...

'काश' इस लफ्झ को पहलु में लाकर
माझी के कुछ पलों को बदलने की कोशिश करते है...

फिर कुछ देर रूबरू होने के बाद.. हम जुदा हो जाते है...
नींद तो आती नहीं... बस सुबह की क़यामत का इंतज़ार करते है...

Thursday, May 20, 2010

खामोश पल.....

आज हम बार बार मिल रहे थे...
बुझ गए जो चिराग प्यार के कई अरसों पहले...
वो जल कर बार बार बुझ रहे थे..

नज़रे उठाने की हिम्मत दोनों में नहीं थी...
लब अन्दर ही अन्दर कुछ हिल रहे थे..

उस बिच बाज़ार के शोर गुल में आहिस्ता से..
हमारे साँसों के सन्नाटे बात कर रहे थे...

तुम्हारी हर अदा की नजाकत को आज भी देखते ही लगा..
की कहीं फूल खिल रहे थे...

काश यह बेरेहेम वक़्त वहीँ रूक जाता..
मेरे हाथ उठ के यही दुआ कर रहे थे...

पर मेरी दुआ का कोई असर न था..
धड़कने वक़्त की बेरहमी की याद दिला रहे थे...

फिर कुछ इस तरह देखा तुमने...
माझी के कुछ ज़ख्म सिने पे उभर रहे थे...

तुम्हारी आँखें बता रही थी तुम्हारे दिल का हाल...
कई पल जो साथ बिताये थे आज पलट के सजा दे रहे थे...

कुछ देर बाद हम अपने अपने रास्ते पे निकल पड़े...
हमारे रास्ते न कभी मिले... न मिलने थे....

कमी सी है...

आज कल हर बात में कुछ कमी सी है...
कहने को तो है ग़म पर उसमे भी ख़ुशी सी है...

ढूँढता हूँ आवाजों में तन्हाई...
पर ये  तन्हाई भी सहमी सी है...

वोह भी हमारी तरफ यूँ देखते है..
के उनकी नज़रों में दुश्मनी सी है...

ये फासले हमारे बिच बढ़ ही रहे है...
के उनमे लम्बी दूरी सी है...

आहें भर के गुजारता हूँ रातें...
दिन में भी उदासी सी है...

प्यार मेरा तुम्हारा हुआ नाकाम तो क्या..
मेरे और उपरवाले में आजकल दोस्ती सी है... 

उदास पानी.....

क्या है ये उदास पानी
या है बचपन?... या है जवानी...

बचपन बीत जाता है ख्वाब सजाने में
जवानी बीत जाती है उनको सच करने में
पर ये तो है सबकी कहानी पुरानी
यही है उदास पानी....

बचपन में हर बात की ख़ुशी
जवानी में किसी की ख़ुशी का ग़म
पर ये तो है रीत पुरानी
यही है उदास पानी....

बचपन और जवानी से लढते हुए
आ जाता है इंसान की जिंदगी में बुढ़ापा
पर ये तो है कभी न ख़त्म होने वाली कहानी
बचपन बुढापा जवानी....
यही है उदास पानी...
यही है उदास पानी...

खेल......

बोहोत सारे खेल मै रोज़ खेलता हूँ...
सूरज से 'race' लगता हूँ के तुझसे पहले मै उठूंगा...
धुप को जलाता हूँ की तू चाहे उतने पैत्रें आजमाले...
छाँव तक तो मै पहुच ही जाऊंगा...
दिन से शर्त लगती है रोज़... के तेरे ढलने से पहले मेरे सब काम हो जायेंगे...
शाम के साथ अक्सर ग़ज़लों की अन्ताक्षरी चलती है...
और जब चाँद आये तो उससे 'challenge' करता हूँ की मेरे यार सा तू बन के दिखा....
रात को धीरे से कहता हूँ की कल तुझे फिर सूरज हरा देगा....
इन सभी खेलों में अक्सर मुझे जीत हासिल होती है...
पर कभी कभी एक ऐसा खिलाड़ी है जो मुझे हरा देता है...
तकदीर के बाशिंदे से कभी कभी मैच हो ही जाती है...
पर आजतक में उसे हरा नहीं पाया हूँ...
तकदीर आज तक मुझपे भारी पड़ती है...