Thursday, May 20, 2010

खेल......

बोहोत सारे खेल मै रोज़ खेलता हूँ...
सूरज से 'race' लगता हूँ के तुझसे पहले मै उठूंगा...
धुप को जलाता हूँ की तू चाहे उतने पैत्रें आजमाले...
छाँव तक तो मै पहुच ही जाऊंगा...
दिन से शर्त लगती है रोज़... के तेरे ढलने से पहले मेरे सब काम हो जायेंगे...
शाम के साथ अक्सर ग़ज़लों की अन्ताक्षरी चलती है...
और जब चाँद आये तो उससे 'challenge' करता हूँ की मेरे यार सा तू बन के दिखा....
रात को धीरे से कहता हूँ की कल तुझे फिर सूरज हरा देगा....
इन सभी खेलों में अक्सर मुझे जीत हासिल होती है...
पर कभी कभी एक ऐसा खिलाड़ी है जो मुझे हरा देता है...
तकदीर के बाशिंदे से कभी कभी मैच हो ही जाती है...
पर आजतक में उसे हरा नहीं पाया हूँ...
तकदीर आज तक मुझपे भारी पड़ती है...

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