Wednesday, November 30, 2011

त्रिवेणी...

न जाने किसकी दुआओं का असर है...
जिंदगी बदली बदली सी हसीन नज़र आती है...

लोगो ने तुझे मसजिद की तरफ जाते देखा था....

मुक्ति...

न जाने कब से सफ़र कर रहा हूँ इस धरती पर...
हर मंज़र जैसे देखा देखा सा लगता है...
हर रिश्ता आजमाया सा लगता है...
चाँद सितारे देखता हूँ तो 'deja vu' सा होता है...
हर शक्स जिससे मिलाता हूँ जैसे मेरा हमसफ़र था कभी...
वजूद की गहराई में कितने सवाल है...
हर रोज़ उनका जवाब ढूँढता रहता हूँ...
न जाने कितने जिस्मों से हो कर निकली है रूह मेरी...
आँख बंद करता हूँ तो चीखे आती है अन्दर से...
कभी लगता है सब कुछ है अन्दर मेरे..
कभी एक खला सी लगाती है...
क्या मुझे पाना है? मै कौन हूँ? किस लिए हूँ यहाँ? ...
इन्ही सवालों का जवाब पाना ही शायद जिंदगी है...
पर इसकी इन्तहा कहाँ है??
तुझ से मिलाता हूँ तो  एक सुकून सा दौड़ता है रूह में...
जैसे समंदर किनारे शफक उतरे...
और इस अनजान सफ़र का अंजाम नज़र आता है...

आ चल मेरे साथ के मुक्त हो जाए इस सफ़र से...
सुना है उस पार एक और धरती है...

Sunday, October 9, 2011

आज का दिन...

आज का दिन बड़ा ही दिलशाद था... गुजरा तो मैंने महफूज़ करके रख लिया...
सोचा जब कोई उदास दिन आएगा तो अपने आँगन में इसे खोल दूंगा...
सुबह की सुनहरी धुप जैसे जिस्म में घुल कर रूह को छु रही थी...
नज़र बड़ी ही मेहरबान थी.. गोया सुकून बाँट रही हो....
ज़हन में ऐसे अरमान आ रहे थे.. जैसे कोई नयी ज़िन्दगी का आघाज़ करे...
दोपहर आई तो तुम्हारे दामन से लिपट के बैठ गयी मेरे आँगन में...
और धीरे धीरे शाम की तरफ उसको सिसकते देखा था तुम्हारे बदन पर...
इससे पहले इतनी ज़ेबा दोपहर देखि न थी...
शाम की रानाई को देख कर यूँ लगा के सितारों का मुशायरा लगा है...
और रात की खामोशी में तुम्हारी सरगोशी को सुन कर...
रात को एक ठंडी आह भरते देखा था मैंने... 

आज का दिन बरकतों का दिन था..
आज का दिन तेरे संग गुजरा था...



शबाना आज़मी के लिए...

शब् भी ढूँढती है मिलने का तुमसे बहाना...
सहर महफूज़ है इन परीजाद आँखों में...
कैफ़ी की कैफियत है इनमे...
और लफ्ज़-ए-जावेद-ए-नूर का ठिकाना....

याद रहेगी वोह शाम शायराना...
जब मिले थे जावेद, कैफ़ी और शबाना...

Saturday, September 24, 2011

ग़ज़ल...

हुस्न-ए-हर्फ़ छेड़ ऐ साकी, अक्ल की बात न कर,
जमाल-ए-महताब छाने दे, हिसाब की बात न कर..

मत सिखा मुझे तू नाज़ुक लहजे, प्यारी बातें,
दिल का पाक हूँ मै, रिया की बात न कर...

धड़कता है दिल मेरा तंग्दस्तों के लिए...
उनकी मुस्कान मेरा सरमाया है, सूद-ओ-जिया की बात न कर...

कहता है तू मुझे दीवाना उसका,
इश्क किया है मैंने इबादत की तरह, बेतरतीबी की बात न कर..

सोचता है तू किस कदर लाइल्म हूँ मै...
खुदा की राह पे चलता है  'पराशर', समाज की बात न कर... 

नज़्म...

एक नज़्म खो गयी है मेरी... 
मैंने लिख के रख दी थी कहीं...
धुंदली धुंदली याद आती है... अधूरी अधूरी सुनाई देती है...
किसीने चुरा ली है शायद... 
तेरा ज़िक्र था उसमे और खुशबू थी तुम्हारी आवाज़ की.. 
यादों के लिफाफों को खोल के देखा पर कहीं उसकी आहट नहीं थी...
किताबों की गलियों से गुज़रा तो पैरों के निशान तक नहीं थे....
बूढी हो गई थी, कुछ ही साल जिंदा रहती...
पर न जाने क्यों आज जेहेन के दरीचों से झांकती है...
ज्यादा गेहरा रिश्ता नहीं था उसके साथ...
पर आज जो बिछड़ा  हूँ  तो एक खलिश सी उभरी है दिल में...
हवाओं की तलाशी ली, खामोशी की छान बीन की...
अंधेरों से पूछा, उजालों को टटोल के देखा...
न जाने कहाँ खो गयी है...
फिर कल शब् जब तुम्हारे पास बैठा था...
तो तुम्हारे होटों पर छुप के बैठी थी वोह नज़्म...

इससे बेहतर भी उसका ठिकाना क्या होता..
मेरी हर नज़्म की इब्तेदा और इन्तहा तुम्ही से है.....

Tuesday, August 2, 2011

मुस्कुराहट....

मेरी  सोसाइटी  के  'basement' में  एक  छोटा  सा  परिवार  काम  करता  है...
मिया  बीवी  है  और  एक  बच्चा  जो  कभी  काम  में  हात  बटाता  तो  कभी  बोझ  लगता  है...
लोगो  के  कपड़ों  पर  जो  दौलत  और  शोहोरत  का  मैल  जम  जाता  है...
उसको  साफ़  करके  फिर  मैल चढाने  के  काबिल  बनाता  था  वोह  परिवार...
न  'career' की  महत्वकांक्षा  थी  न  इज्जत  का  खोकला  गुरुर...
पर  जब  भी  मिलते  थे  मुस्कुराते  थे  जैसे  खुदा  मुस्कुराता  है  बन्दों  पे...
दिन  भर  काम  करने  के  बाद,  बीवी  शाम  को  हर  घर  के  हिस्से  के  कपडे  देने  जाती  है...
जैसे  लोग  कोई  बड़े  हवन  पूजा  के  बाद  प्रशाद  बाटते  है...
सारे  बच्चे  किसी  सस्ते  खिलोने  की  तरह  देखते  थे  उस  बच्चे  की  तरफ...
पर  फिर  भी  घुल  मिल  के  खेलता  था  सब  के  बिच...
अभी  तक  उसने  औकाद  के  हिसाब  से  दोस्त  बनाना  सीखा  नहीं  था...
हर  रोज़  रात  को  घरों  से  बचा  हुआ  खाना  लेके  घर  को  लौटते  थे...
और  लौटते  हुए  अक्सर  मैंने  तीनो  को  एकसाथ  मुस्कुराते  हुए  देखा  है..
इस   उम्मीद   में  के  किसी  दिन  जिंदगी  हसीन  होगी 
जहां  बाकी  घरों  में  काम  के  बोझ  और  खोकले  रिश्ते  सांस  लेते  है...
कम  दीखते  है  ऐसे  लोग  जिनके  हालात  मजबूर  न  होके  खुद्दार  है...
दौलत  से  कमजोर  पर  मुस्कुराहट  और  उम्मीद  से  मजबूत..
जिंदगी  इतनी  भी  मुश्किल  नहीं  मुस्कुराने  को..
रूह  इतनी  भी  कम्जोर  नहीं  मर  जाने  को..

Monday, August 1, 2011

बारिश...

सुबह से एक काला बादल मेरा पीछा कर रहा था...
पीछा करते करते मेरे घर की खिड़की पे आके रुक गया...
किसी कुत्ते के पिल्ले की तरह जो अपनी माँ से बिछड़ गया हो...
न जाने क्या आरज़ू थी उसकी बड़ी आस लगा के ताकता रहा मुझको...
फिर एक हवा का झोंका आके मेरे कानो में चुपके से कह गया...
सावन का भटका बादल है उसे अपनी मंजिल तक पहुंचा दो...
फिर जब हवाओं पे पैर रखकर शाम उतरी...
तो मेरी हैरत की निगाह जो उस बादल पर थी मददगार हो उठी...
हवाओं के हाथों संदेसा भिजवाया उस बादल को...
की मेरे पीछे पीछे चलता रहे...
फिर जब चाँद निकला गोधुली में...
तो उस बादल को तेरे घर के ऊपर छोड़ आया था....
हर बादल की ख्वाहिश रहती थी तेरी छत पे बरसने की...
सुना है कल रात बारिश हुई थी सिर्फ तेरे ही घर पर जब तुम मुस्कुराती आँगन में आई थी...
खुदा का कोई करिश्मा समज कर लोगो ने शाम की नमाज़ तेरे दर पे ही अदा करदी...
बारिश भी दीवानी है तेरी...
बादलों का कम्बल ओढ़े किसी डाकू की तरह तुझे मुस्कुराता देखने चली आती है सावन में...


सावन...

कल रात के आखरी पहर में  दरवाज़े पे हुई दस्तक ने अचानक जगा दिया...
हवा का झोंका था जो दरवाज़े पे कुछ सब्ज़ पानी की बूँदें फ़ेंक गया था..

सुबह उठ के 'calendar' देखा तो सावन का महिना शुरू हो चूका था.... 

India Pakistan

अगर  इंडिया  और  पकिस्तान  आज  एक  होते..
तो  सचिन  तेंदुलकर  और  वसीम  अकरम  एक  ही  टीम  में  होते..
क्या  टीम  होती  वह  हर  विश्वकप  हम  ही  जीतते...
कश्मीर  की  पेशानी  पे  इतनी  चोटे  नहीं  होती...
हिन्दू  और  मुसलमानों  के  बदन  से  कॉमि  बदबू  नहीं  आती...
उर्दू  आज  भी  स्कूलों  में  पढाई  जाती...
'Bangalore' के  साथ  साथ  इस्लामाबाद  भी  'IT' में  आगे  होता..
न  टूटती  बाबरी  न  गोधरा  में  दंगा  भड़कता...
आतंकवादियों  से  ज्यादा  समाजवादी  होते...
लाहोर  की  शामे  और  भी  सुरमई  होती...
और  काम  के  सिलसिले  में  लोगों  का  कराची  आना  जाना  होता...
मेहदी  हसन  और  नुसरत  साब  की  आवाजें  हर  घर  में  गूंजती ...
पर  वक़्त  का  फरमान  कुछ  और  था...
और  फसल जो पहले  एक ही  खेत से  कटती  थी  अब  अलग अलग बाज़ारों में बेचीं जाती  है...
'Nuclear family' की  हवा  ने  देशों  को  भी  नहीं  छोड़ा...
जो  रोटी  पहले  एक  ही  चूल्हे   पर  पकती  थी , वो  अब  अलग  अलग  कमरों  में  बंद  दरवाज़ों  के  भीतर  बनती  है...
इश्वर-ओ-अल्लाह  भी  क्या  करते , के  खुदा  के  इस  बनाये  हुए  जहां  में  कुछ  लोग  खुद  खुदा  बन  गए  थे...
मैंने  बटवारे  को  देखा  नहीं  है  पर  आज  भी  सरहद  पर  उन  रूहों  की  चीख  सुनाई  देती  है.. 
जिनके  जिस्म  काटे  गए , इज्जत   लूटी  गयी , और  जिनको  बिछड़ने   पे  मजबूर  किया गया...
आज  भी  पंजाब   में  सड़ी  गली  लाशों  के  निशाँ  दिखाई  देते  है  जिनको  सड़क   पर  से  कुरेद  कर  निकाला  गया..
काश  आज  ये  दोनों  देश  एक  होते...
तो  इन  रूहों  को  चैन  मिलता..
अमन  की  सिर्फ  आशा  ही  नहीं  अमन  की  खुशबू  से  हर  कोना  महकता... 

बाज़ी....

ऐ  खुदा  चल  किसी  दिन  साहिल  पे  बैठ  के  ज़िन्दगी  की  बाज़ी  लगाये .. 
शतरंज  की  बिसात  पर  फैसला  करें  की  कोंन  ले  जाएगा  ज़िन्दगी  को... 
तू  अपनी  मर्ज़ी  से  मुश्किलें  बीछा  मेरी  राह  में...
मै  अपने  यकीन  से  उनको  पार  कर  लूँगा...
मेरे  वजूद  को  मिटाने  की  कोशिश  तू  जारी  रख...
मै  हर  एक  दिन  नया  जनम  लेके  फिर  आ  जाऊंगा ...
मेरे  हर  रिश्ते  को  बाज़ार  में  नीलाम  करदे...
मै  हर  एक  मोड़  पे  रिश्तों  को  महफूज़  कर  के  आगे  बढ़  जाऊंगा...
मेरे  सफ़र  के  हर  मोड़  पे  दो  राहें  पेश  कर...
मै  हर  बार  तजुर्बे  से  सही  राह  चुन  लूँगा...
दहकती  आग  लाके  रखदे, बर्फीली  हवाएं  चलवा...
जीने  की  तमन्ना  से  मै  हर  वार  को  सह  लूँगा...
और  जब  तू  आखरी  चाल  चलेगा  मौत  की...
तो  उसकी  तस्वीर  दिखा  कर  मौत  से  भी  बच  निकलूंगा...
यूँ  भी  होगा  इक  दिन...
और  फिर  ज़िन्दगी  मेरा  हात  थामकर  मुझसे  कहेगी  मुस्कुराकर...
चलो उठो  अभी  तो  बोहोत  सफ़र  बाकी  है...
यूँ  भी  होगा  इक  दिन.. ज़िन्दगी  फिर  चल  पड़ेगी...

Tuesday, June 21, 2011

ज़िन्दगी ऐ ज़िन्दगी...

 पहले जो आशना थी जिंदगी अब अनजान रहके चुप चाप देखती है...
दिन कुछ यूँ गुज़रते थे के बस तारीख उलटे...
अब दिन का एक पहर गुज़रता है तो जैसे शारीर से कोई बोझ उतरे..
ख्वाइशों को मजबूरियों ने कैद करके रक्खा है....
एक खला है जिस्म में पूरी फैली हुई...
दिल की धड़कन चुप चाप गूंजती रहती है इसमें जैसे किसी गिरजे की जरस...
कई सालों बाद धुप को ठहरते देखा है मैंने अपने आँगन में...
आरज़ू अपाहिज है अब चल नहीं पाती ख़याल तक भी...
दिन ऐसा गुज़रता है के कभी ढलेगा नहीं... और रात ऐसी आती है के कोई सुबह नहीं होगी...
दुआ भी अब खुदा तक नहीं पहुँचती.. सुना है कुछ आवारा परिंदे बिच में ही लूट लेते है...
बेकल बेसहारा है नज़र.. तुझको तलाशती है हर दम...
वक़्त जो पहले नज़र नहीं आता था गुज़रते हुए...
अब घर में हर कोने में उसके कतरे नज़र आते है...
कोई कतरा उठा लिया और बस गुज़ार लिया...

जिंदगी तू क्यूँ इस कदर रूठी है मुझसे...
पास आके बैठ बात कर.. मै भी तो तेरा अपना हूँ...
मुझे बोहोत कुछ देना है तुझको.. उसका वादा निभाना है...
आ जिंदगी मुहसे प्यार कर....
जिंदगी ऐ जिंदगी मुझसे प्यार कर...

Friday, June 17, 2011

बम्बई...

कई बार बारिश में मुंबई की सड़कों पे चलते चलते
जब मै किसी पुरानी मिल से होके गुज़रता हूँ...
बारिश की कुछ सब्ज़ बूँदें जब मिल की दीवारों से टकराती है...
तो कुछ कतरें मन पे आ गिरते है.. और मुझे माजी की उन खोयी गलियों में ले जाती है...
जब मुंबई को बम्बई के नाम से जाना जाता था...
और आस पास के कस्बों से लोग रोटी कमाने के बहाने इस शेहेर की आबादी में शामिल होते थे..
मिल मजदूर का नाम मिलता था.. और मशीनों सा काम मिलता था..
पहले कुछ महीने साथी मजदुर किसी दोस्त की तरह मदत करते थे.. 
किसी ने रोटी दे दी.. किसी ने सब्जी.. टुकड़े इकठ्ठा करके खाना मिलता था...
एक छोटा से "गाला" होता था.. जहां नींद भी शिफ्ट में मिलती थी...
हर किसी का एक छोटा सा कोना होता था.. और कपडे टांगने के लिए एक छोटी सी जगह...
हर कोई कुछ पूँजी जमाकर गाँव लौटने की तमन्ना रखता था...
मिल की वोह खट खट की आवाज़ शुरुवात में शोर की तरह सुनाई देती थी..
फिर जैसे वोह आवाज़ इन मजदूरों के जिस्म में घुल कर खामोशी बन जाती थी...
अब मिल की जगह "mall" बन गए है...
पर आज भी कोई बूढा मिल मजदूर मिल के पास से गुज़रता है..
तो उसके कानो में आज भी वोह आवाज़ गूंजती है...
इन्ही लोगों ने बम्बई को मुंबई बनाया है...
सजा कर दुल्हन को जैसे कोई विदा कर दे...
कई बार मैंने मुंबई में बम्बई को महसूस किया है..
अनोखा शेहेर है मुंबई...
जितना माजी में रोशन है उतना ही मुस्तकबिल में नज़र आता है...


Thursday, May 19, 2011

मुंबई और रात..

मैंने  मुंबई  को  बोहोत  करीब  से  देखा  है... 

रात  की  मेहबूबा  है  मुंबई..
रात  'underworld'  के  'don'  की  तरह  चुपके  से  मिलने  आती  है...
और  सुबह  होने  के  पहले  निकल  जाती  है..
उसे  डर  है  के  कही  सूरज  की  किरण  उसे  पकड़  न  ले....
मैंने  कई  बार  देखा  है  साहिल  पे  मुंबई  ko...
हात  में  फिल्म  की  दो  टिकेट  लेके  रात  का  इंतज़ार  करते  हुए...
उसकी  पसंदीदा  जगह  पे  खाना  खाते  है...
फिर  फिल्म  देखते  है  किसी  'typical mumbaikar' की  तरह...
फिर  जब  रात  अपने  दुसरे  पहर  से  गुज़रती  है..
तो  समंदर  के  बिस्तर  पे  दोनों  के  जिस्म  यूँ  मिल  जाते  है  जैसे  कभी  जुदा  न  थे..
एक  अजीब  सी  खामोशी  मचलती  है  शेहेर  में...
कुछ  देर  मुंबई  भी  सोती  है  जब  रात  सुस्ताने  लगे...
पर  रात  का  जाना  तो  तय  था...
चुपके  से  मुंबई  का  हात  अपने  बदन  से  उठाकर...
मुंबई का  माथा  चूमकर  रात  निकल  जाती  है...
कोई  नन्ही  सी  सबा  आकर  मुंबई  को  जगाती  है...
रात  फिर  कल  साथ  रहने  का  वादा  तोड़कर  चली  गयी...
कुछ  देर  यूँही  साहिल  पे  बैठी  रहती  है  मुंबई...
मैंने देखा है उसे गुमसुम उदास भी...
शायद  इसीलिए  सुबह  सुबह  मैंने  अक्सर  मुंबई  को  तनहा  देखा  है...
मुंबई  और  रात  का  यह  रोमांस  कई  सदियों  से  चला  आ  रहा  है....
मुंबई रात में उस बार बाला की तरह नज़र आती  है जो सज धज के किसी का इंतज़ार करती हो...
कई  बार  मुंबई  ने  कहा  रात  को  शादी  के  लिए...
पर  रात  भी  क्या  करती  उसका  विदेश  में  भी  तो  एक  परिवार  है....
मुंबई  को  न  जाने  कितने  लोगो  ने  धोका  दिया  है!!!!

Thursday, April 28, 2011

तेरी आँखें....

तेरी आँखें सब कुछ कहती है मुझसे....
तेरे मन का चेहरा बन रोज़ पलकों तले मिलती है मुझसे ..
आँख की कोर मे तैरती नमी में कुछ मजबूर अरमान मचलते नज़र आते है..
बात  करते  करते  मुझसे  जब  अचानक  नज़र  फेर  लेती  हो .. 
तो जिंदगी की किताब का वो बेरंग सा सफ्फ्हा चुपके से पलट देती हो...
खामोश बैठ के जब यूँ ही आसमान की तरफ देखती हो. ..
तो आसमान की तन्हाई तुम्हारी आँखों में उतर आती है...
कल जब सनसेट देखा था तुमने मुस्कुराके ..
तो शाम को तुम्हारे नैनो में ढलते देखा था...
और तुमने चुपके से अपनी आँखों में शाम को महफूज़ कर के रख दिया...
और चाँद को कहा कल ढलते ढलते मुझसे ले जाना...
जब खुल के हस्ती हो...
तो  एक  अजीब  सी  मासूमियत  भर  आती  है  आँखों में... 
और सारे माहौल में फ़ैल जाती है खुशबू की तरह...

कई बरसों से अपाहिज हूँ लफ़्ज़ों की बैसाखी पर...
आकर कभी आँखों से बात करो...
के ख़तम हो लफ़्ज़ों का ये शोर...

Wednesday, April 27, 2011

आसमान पे उम्र काटे...

चलो ना किसी दीन जब शाम जवान हो...
ख्वाहिशों के पर लगाके आसमान पे उड़ने चले...
परिंदों के झुण्ड के साथ आसमान की सैर करे...
फिर जब थक जाए तो बैठे किसी बादल पर...
और शाम की चाय पिए सूरज को ढलता देख ..
आसमान के कैनवास पर सुरमई शाम के रंगों से एक पेंटिंग बनाये....
उस हसीं जिंदगी की जो तुम्हारे दिल में है...
बिलकुल पाक और दिलकश...
फिर जब सूरज अलविदा कहदे और चाँद चमक  उठे...
तो चांदनी को सिरहाने रख कर लेटे रहे बादल पर....
और सुबह तक बस बातें करते रहे...
किसी पुरानी बात पे तुम्हारे लबों पर वही गुनगुनाती हसी आये....
और वोह बस आसमान पर गुनगुनाती रहे 'Background music' की तरह..
चलो ना इसी तरह एक उम्र काटें आसमान पर...
और जब वक़्त का कारवां ख़तम हो...
तो एक साथ अगले जनम में जमीं पे उतर आये...

Sunday, April 24, 2011

20 x 40 का कमरा...

वोह 20 x 40 का तुम्हारे घर पे जो  एक कमरा है..
अब सौंधी सी रौशनी से सजा है...
सारे घर के कमरे बड़े ही हैरत से तकते है उसको... जैसे किसी नई दुल्हन को घरवाले तकते है..
न जाने क्या बात है उसमे... 
सुकून को आराम है वहाँ...
दो किनारों पे जो तुमने रौशनी रखी है उसके दम पे जैसे उसकी साँसें चलती है...
कुछ बोहोत ही हलके और नाज़ुक लफ्ज़ घुमते है इस खामोश रौशनी में...
जिंदगी की हर शिकायत यहाँ आकर बड़ी ही छोटी लगती है...
किसी बुज़ुर्ग की तरह अपने तजुर्बे से सब ग़मों को खिंच लेता है और अपने दामन में समेट लेता है...
वोह रौशनी के स्त्रोत तुम्हे बड़ी ही नजाकत से तकते है...
तुम्हारी आँखें उस कमरे में गहनों की तरह चमकती है...
पर जब तुम उदास होती हो तो यह कमरा नाराज़ सा लगता है...
तुम्हारी हसी उसकी नब्ज़ है...
हर पल मुस्कुराते रहो के तुमसे ही ये कमरा रोशन है....

इश्क...

इश्क रास्तों पे यूँही नचवाता  है...
कभी होटों पे बेवजह रुक कर मुस्कुराता है...
ज़हन में ग़ज़ल बन कर गुनगुनाता है...
सुनसान सडको पे भटकाता है देर रात तक...
आँख की चमक बन रोशन करता है चेहेरे को...
अजनबियों से बात करवाता है...
आँखों में डूबोता है...
इबादत की आदत लगवाता है...
अजीब बीमारी है ये...
दर्द से ज्यादा एहसास का मजा देती है...





मातम...

कल रात उस सितारे की अचानक मौत हो गई...
जो चाँद से मोहब्बत करता था...
चाँद यह खबर सुन कर कुछ सुन्न सा चमकता रह गया...
रात भर अपने आप को यकीं दिलाने की कोशिश करता रहा के अब वोह नहीं है...
कल  चाँद को धरती को देर तक तकते देखा था मैंने...
न कोई आँसूं टपका कही न कोई चीख...
शायाद अबतक वोह बात दिल तक उसके उतरी नहीं...
जैसे जैसे सब बादलों को खबर मिली तो सफ़ेद लिबास पेहेन कर चाँद के घर पहुँच रहे थे...
उस दिन बोहोत से बादलों को आसमान पे शोक मनाते देखा था मैंने...
एक ही मुद्रा में खामोशी की सफ़ेद चादर ओढ़े हुए...
जाने वाले के ग़म में बहुत देर तक आंसू बहाते रहे...
हाँ कल दिन भर बारिश होती रही...
फिर कुछ देर बाद जो हवा चली तो सब उठ के अपने सफ़र पे चल पड़े...
यह सोचकर के अब घर वालों को अकेला छोड़ दो...
और आसमान साफ़ था और चाँद फिर अकेला आसमान पे भटकता रह गया...
उस रात मैंने चाँद को नहीं देखा आसमान पे, पर कुछ चीखें ज़रूर सुनी थी बिजली की...
कुछ लोगो ने देखा था चाँद को लम्बे सफ़र पे जाते...
शायद उसकी आस्तियां बहाने गया होगा आकाश गंगा की तरफ...

जिंदगी के साथ मौत का भी खेल सब जगह एक जैसा है...
मौत के बाद का मौन आसमान और जमीं पर एक जैसा लगता है.....


उम्र...

उन दोनों में अब छोटे बच्चे की तरह झगड़े होते है...
पुरानी बातों को लेकर अब मुस्कुराके ताने मारते है....
कुछ पुरानी आदतें जो पहले दिल को भाति थी....
अब एक दुसरे की शिकायत करने के काम आती है...
अपने पोते को पूछते है की हम दोनों में से कौन अच्छा लगता है...
वो बाज़ी मारके खुश होती है और वोह हर बार हारना चाहता है...
पहले जो इश्क ग़ज़लों में बयान होता है...
अब वोह बस इशारों में अदा हो जाता है...
'fitness' के बहाने निकलते है 'walk' पर...
पर असल में थोड़ी 'privacy' चाहते है जो अब घर पे बच्चों के साथ नहीं मिलती...
अक्सर दोनों को मैंने देखा है उस जगह पे जाते... 
जहां वो पहली बार मिले थे...
कभी अकेले में पुराने दिन याद करके थोड़ी  देर जवान होते है...
वक़्त जो पहले एक दुसरे के बाहों में कटता था...
अब एक दुसरे को दवाई लेने की याद देने में निकल जाता है...
रात को बिस्तर पर सोने से पहले कहते है की तुझसे से पहले तो मौत मेरा ही रास्ता काटेगी...
और जब करवट लेते है तो सहम जाते  है के तेरे बिना कैसे गुज़ारा होगा...


एक उम्र साथ बिता कर इश्क कितना मासूम हो जाता है...
थोडा नमकीन थोडा मीठा...
लफ़्ज़ों से परे पर खामोशी से रोशन.....


Wednesday, February 2, 2011

रोशनी.....

मेरे मकान में कई दिनों से अँधेरा सांस ले रहा था....
हर एक कोना जैसे उजाले के लिया प्यासा था....
कोई मासूम सा ख़याल छोटे बच्चे की तरह अँधेरे में खिसक रहा था...
कोई नज़्म रास्ता भटक के एक कोने में चुप चाप बैठी थी...
एक जवान ग़ज़ल अपने यार से बिछड़ी हुई आंसूं बहा रही थी...
अभी अभी जन्मी त्रिवेणी ने भी अब बेवजह मुस्कुराना बंद कर दिया है...
सहमी सी एक आरज़ू थी आज कल उसका भी पता नहीं..
सब्ज़ कुछ यादें थी जो अब याद नहीं आती....
सारे माहौल पे किसीने जैसे 'pause' का बटन दबा दिया हो...
फिर उस रात जब तुमने आके मेरी देहलीज पर जो दिया रखा...
तो जैसे नूर की एक एक बूँद घर के हर एक कोने में समा गयी...
ग़ज़ल फिर अपने सुरों से मोहब्बत करने लगी..
नज़्म फिर गा उठी...
ओर त्रिवेणी के चेहरे पर एक मुस्कान ने पहरा डाल दिया...
उस दिन चाँद भी कई देर तक मेरे घर को हैरत से ताकता रहा...
रोज़ आया करो तुम...
के कितने भी मै उजाले रख दूँ घर में...
रोशनी तो तेरे ही क़दमों से आती है....

Sunday, January 30, 2011

मुंबई...

कहीं धारावी की छोटी गलियों में एक पूरी दुनिया बस्ती है...
तो कहीं कार्टर रोड की जोग्गिंग ट्रैक पर समंदर की हवा भी मेहेंगी है...
कहीं जोगेश्वरी की चाल में टेस्ट मैच चलती है...
तो कहीं वानखेड़े के 'flood lights' जैसे समंदर पे सजदा करते है...
मीरा रोड की दुनिया जैसे अभी अभी बसी है...
तो 'brabourne' पे आज भी पुरानी कसी मैच का भूत रात में घूमता है...
हर रोज़ एक नयी जगह पे जाके यह शेहेर फैलता है...
तो v.t स्टेशन जैसे अपने भुडापे पे अटल खडा है....
कुछ इलाकों में आज भी इश्क इज़हार से शर्माता है यहाँ...
ओर 'band stand' पे इश्क जिस्मानी तौर पे पानी की तरह फैला है...
मोहम्मद अली रोड पे हर दिन जैसे ईद सा लगता है...
तो झवेरी बाज़ार में रोज़ करोड़ों के सौदे चलते है....
'stock exchange' पे सारे लोग खुले आम सट्टा खेलते है...
तो मुंबई underworld जैसे चूहों की तरह रात में चुपके से काम करता है...
मुंबई के बारे जितना लिखू उतना कम है...
कितने शेहेर बसते है इस एक शेहेर में....
सुबह धमकती है रात में चमकती है....
लोग कहते है के सिद्धि विनायक ने मुंबई को बचा के रक्खा है...
कोई कहता है जब तक हाजी अली डूबता नहीं मुंबई को कुछ नहीं होता...
पर मुंबई पे असली बादशाहत है उसके लोगों की...
जो डरते है के कहीं मुंबई थम न जाए...
थम गए तो जैसे यह शेहेर बिखर जाएगा...
इसलिए सदा चलते रहते है...
रफ़्तार ही मुंबई का असली मालिक है...
खुदा को भी पोहोचने में देर लगती है यहाँ.....



Saturday, January 29, 2011

पूरे चाँद की रात...

अक्सर मैंने शाम को देखा है जब पूरे चाँद की रात आने को होती है...
जब उतरती है बादलों की सीडी से...
तो बड़ी ही खुशनुमा नज़र आती है...
जैसे अभी अभी नहा के निकली हो...
और चेहेरे पर एक सौंधी सी मुस्कान लिए घुमती है...
चारो ओर चाँद के आने की ख़ुशी बांटती है...
जैसे कोई दुलहन खुश होती है जब उसका पति जंग से लौटता है...
सितारों को थाली में समेट के साहिल पे खड़ी रहती है...
जब रात आये तो उसके बदन पे सितारों को रखकर कर मुस्कुराके देखती है...
जैसे कोई भगवान् पर फूल चढ़ाये...
ओर सूरज की नज़र न लगे इसलिए रात के माथे पे चाँद का टिका लगाकर...
रात की बाहों में यूँ समा जाती है जैसे दो रंग आपस में मिल जाते है..
और बस एक ही रंग दिखाई देता है...





नया साल...

हर बार की तरह इस बार भी जनवरी में वक़्त एक साल आगे बढ़ा है..
सारी दुनिया ने नए साल का स्वागत किया है जैसे किसी नयी दुल्हन का करते हो...
अपना अपना तरीका है सब का नया साल मानाने के लिए...
पास के झोपड़ियों ने भूका रह कर नए साल में कदम रक्खा है..
कुछ बच्चों ने बचा हुआ सडा खाना खा कर पार्टी की है...
कुछ लोगों ने किसी का रेप कर अपनी ख़ुशी मनाई है...
कुछ क़त्ल हुए नए साल पर...
कई नौजवान इस रात भी नौकरी का सिर्फ तसव्वुर करके नाच रहे है...
और शराब कि महफ़िल सजी है बड़े मकानों में..
खोक्लापन, झूट, मतलबीपन, इन सब को चकने में खा रहे है...

मुझे इंतज़ार है उस साल का जब सच में कुछ नया हो..
और न ही सिर्फ तारीख किसी अपाहिज की तरह आगे खिसके...


आम आदमी....

सूरज भी एक आम आदमी की तरह जीता है हर रोज़...
सुबह जब उगता है तो जैसे योग कर रहा हो...
फिर दस बजे तक पूरा उग कर जैसे तैयार होके दफ्तर निकल रहा हो...
दोपहर जैसे चुप चाप किरणों के साथ खाना खा लेता है..
जब धीरे धीरे शाम नजदीक हो तो..
बादालों के साथ चाय पिता है और गप्पे लड़ता है....
और जब शाम बादलों से उतर कर आये...
तो दफ्तर समेट कर एक फूल हाथ में लिए उसको मिलने जाता है...
और शाम की बाहों में कुछ सब्ज़ लम्हे समेटता है...
और जब अँधेरा पीछे से आके दस्तक दे..
तो शाम को साहिल पे छोड़ के अपने घर निकल जाता है..
और घर वालों से मिलके चैन की नींद सो जाता है...
ऐसे करोड़ों सूरज रोज़ इसी तरह जीते है और भुज जाते है...
इंतज़ार है उस सुबह का जब सारे सूरज एक साथ उगे हो...


किश्त...

कभी कभी शाम को मिलती हो आसमां पे बिखरे रंग की तरह...
कभी सुबह नज़र आती हो कोहरे में छुपे सूरज की तरह...
कभी रात को मिलती हो सुनसान सन्नाटे की तरह...
देखती हो मेरी तरफ घूम कर तो वक़्त हैरान सा लगता है...
सुबह जब चुप चाप बैठती हो तो लगता है जैसे कोई परिंदा पर फैला के आसमां पे उड़ रहा है..
मेरे लतीफे पे ताली देती हो तो जैसे आबशार कोई पत्थर पे टूटे..
हंसती हो तो चुटकी में मौसम बदल जाता है, वोह जैसा सावन में बदलता है...
मिलता हूँ तुमसे तो जिंदगी आगे चलती है...
मेरी बातें सुनकर आँखों ही आँखों में न जाने क्या बुनने लगती हो..
जब जाती हो तो चुप के से जिंदगी एक पुडिया में बाँध कर मेरी जेब में रख जाती हो..
फिर ख्वाब में आकर उसको खोल के मुस्कुराती हो...
और जैसे जिंदगी का हर एक टुकड़ा अपनी सही जगह पे आके रुक जाता है...
और एक हसीन जिंदगी की तस्वीर नज़र आती है..
जैसे कोई 'collage' बनाये...
एहसान है तुम्हारा मुझपे...
रोज़ मिला करो जानम... के किश्तों पे तुम्हारा एहसान चूका पाऊँ....



Saturday, January 1, 2011

ग़ज़ल....

ऐसा लगता है अभी तो आया हूँ तुझ से मिलकर...
फिर तन्हाई ने यकीन दिलाया के कितना अरसा गुज़ारा है तुझ से मिल कर..

अफ़सोस ये नहीं के अब साथ है तो बस यादें..
अफ़सोस इस बात का है के देखा नहीं तुमने पलटकर...

तुझ से सजा हर पल आज भी ज़हन में ताज़ा है...
कई रोज़ यूँ ही कट जाते है उनको सोच कर...

मैंने एक नज़्म तुम्हारे लिए बचा के रक्खी थी..
आज मर गयी वोह आ रहा हूँ उसको दफना कर..

तेरे आने के दिन नजदीक है 'पराशर'...
खुश है सबा, अब तेरे घर से गुजरकर...