Sunday, October 9, 2011

आज का दिन...

आज का दिन बड़ा ही दिलशाद था... गुजरा तो मैंने महफूज़ करके रख लिया...
सोचा जब कोई उदास दिन आएगा तो अपने आँगन में इसे खोल दूंगा...
सुबह की सुनहरी धुप जैसे जिस्म में घुल कर रूह को छु रही थी...
नज़र बड़ी ही मेहरबान थी.. गोया सुकून बाँट रही हो....
ज़हन में ऐसे अरमान आ रहे थे.. जैसे कोई नयी ज़िन्दगी का आघाज़ करे...
दोपहर आई तो तुम्हारे दामन से लिपट के बैठ गयी मेरे आँगन में...
और धीरे धीरे शाम की तरफ उसको सिसकते देखा था तुम्हारे बदन पर...
इससे पहले इतनी ज़ेबा दोपहर देखि न थी...
शाम की रानाई को देख कर यूँ लगा के सितारों का मुशायरा लगा है...
और रात की खामोशी में तुम्हारी सरगोशी को सुन कर...
रात को एक ठंडी आह भरते देखा था मैंने... 

आज का दिन बरकतों का दिन था..
आज का दिन तेरे संग गुजरा था...



शबाना आज़मी के लिए...

शब् भी ढूँढती है मिलने का तुमसे बहाना...
सहर महफूज़ है इन परीजाद आँखों में...
कैफ़ी की कैफियत है इनमे...
और लफ्ज़-ए-जावेद-ए-नूर का ठिकाना....

याद रहेगी वोह शाम शायराना...
जब मिले थे जावेद, कैफ़ी और शबाना...