Friday, May 21, 2010

मौत...

ऐ मौत... तू अब आ ही जा...
अब ये ग़म-ए-दिल बर्दाश्त नहीं होता
मेरी साँसें खड़ी है इस कदर बेक़रार
अब उन्हें ये आना जाना बर्दाश्त नहीं होता...

मेरे जाने की महफ़िल आज भर गयी है..
सब लोग जिंदगी के प्याले के नशे में चूर है
मेरा प्याला दूर उस मैखाने में खाली पड़ा है
उस प्याले का खाली नशा बर्दाश्त नहीं होता...

आज वो भी हमारी महफ़िल में आई है
फिर होटों ने छेड़ी है दीदार-ए-मुस्कान
आँखों में है एक मोती...
उस मोती का दामन पे बिखर जाना.. बर्दाश्त नहीं होता...

यम आया है साकी बनकर इस मैखाने में..
जिंदगी की किताब को बंद कर रहा है
मौत की किताब के पन्ने उलट रहा है
उन जिंदगी के पन्नो का हवा में उड़ जाना बर्दाश्त नहीं होता...

यारों जलाने से पहले मेरे सिने से दिल निकाल लेना..
उस में एक ख्वाहिश अभी भी बाकि है
वोह फिजा बन कर अपनी मंजिल पा लेगी
उस ख्वाहिश का जल जाना बर्दाश्त नहीं होता..

अब मै जल चूका हूँ....
बची है तो बस अस्थियाँ
उनको उस के दर पे छोड़ आओ
अपनी जिंदगी तो कट चुकी तनहा...
उन अस्थियों का तनहा सफ़र बर्दाश्त नहीं होता...

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