Sunday, December 9, 2012

school...

मेरे घर के पास के स्कूल में हर रोज़ बच्चे गाते है
"मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना"
कल फिर शेहेर में मज़हबी फसाद हुआ है
न जाने आज कल स्कूल में बच्चों को क्या पढाया जाता है.....

तेरे शेहेर की शाम....

बोहोत दिनों बाद आज तेरे शेहेर की शाम मिली थी मुझसे  साहिल पे
वही शाम जिसको हम साथ में बैठके डूबते देखा करते थे
वही शाम जो हमारी सारी बातें चुपके से सुना करती थी
जब से तूने शेहेर छोड़ा है, बोहोत ही अफसुर्दा लगती है शाम
जो पहले किसी बच्चे की मुस्कान की तरह खिल उठती थी
अब बस आती है और रात की चादर डाल के आसमान पर, चली जाती है
सुना है सूरज भी अब रात में घर नहीं जाता
काश के कभी यूँ भी होता
हम दोनों किसी दिन फिर मिल पाते चोरी चोरी साहिल पे
और शाम को तुम्हारी आँखों में डूबते देख पाता
और हम दोनों सूरज को उसके घर तक छोड़ आते
बोहोत याद करती है तुमको तुम्हारे शेहेर की शाम....
गर किसी दिन आओ साहिल पे तो हाल चाल पूछते जाना....

 

Monday, August 27, 2012

कौन हूँ मै?...

किसी की नज़र में हैवान हूँ...
किसी की नज़र में भगवान् हूँ...
 कौन हूँ मै?

कोई कातिल कहता है मुझे...
किसी ने मुनसिफ बना रखा है...
किसी ने बांधली है उम्मीद मुझसे...
कोई हसता  है मेरी उम्मीद पर...
कभी किसी ने वली कह दिया...
बादाख्वार करार किया किसीने...
कौन हूँ मै?..

कोई हैरत से देखता है मुझे...
कोई देख के अनदेखा करता है...
कभी शायर हूँ, किसी पल में कायर भी..
कभी बस प्यार प्यार ही प्यार हूँ.. नफरत-ए-शमशीर भी..
कौन हूँ मै?...

कभी करता हूँ खुदा को सजदे...
कभी बुतखानो पे हँसता हूँ..
कभी गुजरी है रात मैकदों में..
कभी यूँ ही सड़कों पर सारी रात गुजारता हूँ..
कौन हूँ मै?

क्या मेरा भी कोई वजूद है?
या बस सांस हूँ मै ?
कोई नया रिश्ता बनता है तो सवाल और गहरा होता है..
सदियों से भटक रहा हूँ इस ज़मीन पर...
बस एक ही  सवाल है मुसलसल...
कौन हूँ मै?

Saturday, August 18, 2012

ग़ज़ल...

या खुदा ये तुने क्या कर दिया औरत को जिस्म दे के ...
नंगा किया जाता है जिसे हर चौराहे पर पैसे दे कर...

हर किसी की  आँख में एक शैतान बैठा है..
जिसको बस अपनी हवस मिटानी है प्यार का नाम दे कर..

कभी मजबूर बेबस हो कर तो कभी मज़े के लिए...
औरत ने इस ब्रह्माण्ड को जाना है सिर्फ जिस्मानी तौर पर...

नूर है ज़िन्दगी का औरत के जिस्म में...
इस बात को भूल कर क्यूँ है सब सेक्स का गिलाफ ओढ़ कर...

कई बरसों से उस दिन का कर रहा हूँ इंतज़ार 'पराशर'...
जब न कोई औरत हो न मर्द, हर कोई जी रहा हो इंसान बन कर...

 

Sunday, July 15, 2012

बौछार....

बोहोत देर बरसने के बाद जब बरसात थम जाती है...
तब मै अपने आँगन में लगे उस पेड़ से मिलने चला आता हूँ...
जो तुमने अपने हाथ से आँगन में लगाया था...
तेज़ हवा चलती है आँगन में, मानो धरती को सुखा रही हो...
अपने पत्तो और शाखों से पानी झटक कर...
मेरे चेहरे पर पानी की बूँदें फ़ेंकता है वोह पेड़...
 जैसे कोई परिंदा अपने परों से पानी निकालता है...
उस पल तुम्हारे होने का एहसास होता है...
जब तुम नहा कर निकलती थी और अपने बाल सुखाती थी...
तुम्हारे बालो से निकली कुछ महकती बूँदें मेरे चेहरे पे बरसती थी...
दरख्तों ने ये अदा तुमसे ही सीखी है..
पूरे कायनात की खूबसूरती समा गयी है तुम्हारे अन्दर...


Tuesday, March 27, 2012

कब्रिस्तान...

हर शाम जब मै सैर पे निकलता हूँ...
तो हर रोज़ मेरे घर के पास वाले कब्रिस्तान से होके गुज़रता हूँ...
एक छोटा सा शेहेर सा लगता है...
हर एक की कब्र है घरों की तरह..
और हर रोज़ बढ़ता हुआ नज़र आता है यह कब्रिस्तान...
जैसे मुंबई शेहेर हर रोज़ फैलता है...
एक बदबूदार खामोशी फैली है हवा में यहाँ...
बोहोत सारी लाशों का यह शेहेर है...
बोलता कुछ नहीं पर बोहोत आवाज़ करता है..
जब जिस्म को तुने नश्वर कहा था...
तो ये अजीब रिवाज क्यूँ है दफनाने का या खुदा...
और क्या कैफियत है तेरे इस जहां की...
जिन्दा इंसान को घर नहीं और कब्र मुफ्त में मिले...


एक दिन सोचता हूँ मै यूँ भी होगा...
यह आबादी का टाइम बम फूटेगा किसी दिन...
और हर जगह बस कब्रें ही नज़र आंएगी... 
क्या पता तब मेरे इस हिन्दुस्तान को कब्रिस्तान कह दे लोग....
 

फिल्म...

फिल्मे तो कई बन चुकी और कई बनेंगी...
पर असली फिल्म वो है जो ख़तम होते ही...
जिस्म-ओ-जान में घुल जाए जब कोई 'theatre' की सीढियां उतरे...
सीढियां उतरते उतरते जैसे उसका खुमार ज़हन पे चढ़ जाए...
जो रात में तकिये पे एक हलकी सी मुस्कान लाये...
तुम्हारे वजूद को टटोल कर कहीं दूर ले जाए...
और फिर धीरे धीरे ज़हन के कोने में जाके बस जाए...
और जब कभी मौका मिले तो अपनी छाप फिर जबान पे छोड़ जाए...
जैसे शोले फिल्म का कोई 'dialogue'...  

फिल्म वो नहीं जो सोचने पे मजबूर करे...
फिल्म वो है जो सोच में घुल जाए और हकीक़त को थोडा और फिल्मी बनाए...
 

Friday, March 23, 2012

दुआ...

सब कुछ बदल सा गया है...
और जो नहीं बदला वो अब नहीं है...
न जाने क्या कैफियत है... दुनिया तो वैसी ही लगाती है आज भी...
नज़र का फर्क है या ख़याल ने कोई नयी शक्ल ली है...
हवा बदन को छूती है तो बचपन में चला जाता हूँ...
जब माँ अपने गोदी में रख कर मुझको सुलाती थी...
हर शक्स से जैसे कोई गेहरा रिश्ता जुड़ गया है...
बेवजह की ख़ुशी पनपती है साँसों में...
कहीं काला जादू तो नहीं??
हर लम्हे में जैसे पूरा घुल गया हूँ... न कम न ज्यादा...
जिंदगी जैसे एक अटल निश्चय की तरह चलती है...
के अब और कोई उसे छेड़े तो खुद गिर जाए...
वो जो 'sense of humour' हुआ करता था...
कुछ रोज़ पहले ज़हन के कोने में फिर मिला है...
कुछ रिश्ते जो वक़्त की मार पड़ते पड़ते बूढ़े हो गए थे...
अब फिर दौड़ने लगे है...
वक़्त को मीलों में काटता हूँ... जो पहले पल की बैसाखी को पकड़ चलता था....
वो जो कुछ पल हुआ करते थे जिनको सारा दिन गुज़र जाने के बाद...
तकिये के कोने में खोल के महसूस करता था...
अब वोह जिंदगी की हकीकत में नज़र आते है...

न जाने किसकी दुआओं का असर है...
सुना है लोगो ने तुझे मस्जिद की तरफ जाते देखा था.....
 

Saturday, March 10, 2012

मै...

अक्सर सोचता हूँ के मै कौन हूँ...
इस जिस्म के कवच में जी रहा एक साँसों का दरिया हूँ?
या ख़याल के वजूद को हाथ में रख कर जी रहा कोई कर्म योगी हूँ?
देखता हूँ मेरे चारो तरफ तो हर चीज़ जैसे जिंदा है...
न पत्थर है मुर्दा न ये शाम-ओ-सेहेर बस चल रहे है...
कुछ तो वजह है जो यह सब है और सब चल रहा है...
कभी लगता है कोई खुदा है जिसने सब बनाया है..
पर न मैंने उसे देखा है न ही महसूस किया...
फिर क्यूँ मै यकीन करून खोकले विश्वास पर...
क्या मै जिस्म हूँ? क्या मै जेहेन हूँ?
पर देखता हूँ चारो तरफ तो एक जैसे है जिस्म-ओ-जेहेन..
एक से जज़्बात है एक सी ख़याल की शक्ल...
महसूस करता हूँ दुनिया को अपनी संवेदना से...
तो हर जिन्दा शय में मैंने बस मुझको ही पाया है...
हर चीज़ में बस मै हूँ... मै ब्रह्माण्ड हूँ...
मेरे ही जैसे सब है यहाँ सब के जैसा मै हूँ...
यह जिस्म-ओ-जेहेन भी मैंने ही बनाया...
बस एक है बनाने वाला जिसको हर इंसान में देखा है...
पूरे ब्रह्माण्ड की शक्ति का एक अंश हूँ मै...
हर जगह बस मै ही मै हूँ...
चारो तरफ बस मै हूँ....

Monday, February 27, 2012

सूरज...

हर रोज़ शाम को देखा है मैंने सूरज डूबते डूबते बड़ा ही मायूस रहता है...
पूरा दिन काम करके अपने घर लौटता है तो मुरझा सा जाता है...
पर जाते जाते आसमान पे अपने सुरमई रंग छोड़ जाता है..
जिसको शाम अपने चेहरे पे मल के चाँद का इंतज़ार करती है...
एक उम्मीद है इस लाल रंग में के कल फिर सवेरा होगा...
जैसे कोई मजदूर अपने घर लौटता है एक जेब में मायूसी और एक जेब में उम्मीद लिए...
शुक्र है सूरज अपना अनपढ़ गवार है...
पढ़ा लिखा होता तो देर रात तक काम करना पड़ता...
और दोनों जेबों में बस मायूसी होती....

Monday, February 13, 2012

खिड़कियाँ..

बोहोत बोलती है ये खिड़कियाँ.. 
मैंने देखा है उनको बोलते हुए... 
जब अक्सर आधी रात को उनकी आवाज़ मुझे जगा देती है... 
ऐसा लगता है जैसे किट्टी पार्टी में औरतें बोलती हो...
वोह एक खिड़की जो 'first floor' पे है... 
बहुत बार दीवार से टकराती रही... 
आज फिर उस घर के मिया बीवी में लड़ाई हुई थी...
वोह ऊपर वाली खिड़की जिसका कांच मोहल्ले के लड़कों ने छक्का मार के तोड़ दिया था... 
उसका कांच अभी भी वैसा ही था... 
एक बुढिया बैठा करती थी वहा... 
सुना है उस बुढिया को वृधाश्रम छोड़ आया है उसका बेटा...
तीसरे 'floor' पे एक अकेली सी खिड़की है... 
जो आज बस खुल के बस आहें भर रही थी...  
एक लड़की को बहुत बार किसीका इंतज़ार करते देखा था...  
आज कल शायद वोह नहीं आता...  
एक खिड़की थी सबसे जो निचे वाला घर था... 
अक्सर शाम को मैंने वहाँ पर उतरते देखा था... 
आज कल वोह खिड़की नहीं खुलती... 
सुना है उस घर के आदमी ने अपने साथ सबकी ज़िन्दगी का गला घोट दिया है... 

बोहोत शोर मचाती है ये खिड़कियाँ... 
बोहोत शोर होता है लोगो के घरों में आज कल... 
अक्सर इस शोर को सुन कर मुझे नींद नहीं आती...

Saturday, January 28, 2012

Dustbin...

हर रोज़ कूड़ा डाल डाल के 'dustbin' भर गया है...
बदबू आ रही है जा कर कहीं इसे दफना दो...
कई दिन कुछ न लिखने पर मेरे दिल में भी.. 
एहसास का कूड़ा जम के दिल भर आता है...
और कागज़ पर मुझे भी अपनी नज्मे दफनानी पड़ती है...

५०० का नोट....

अजीब बेचैनी महसूस होती है...
जब किसी ऑटो में जाता हूँ.. और जेब में बस एक ५०० का नोट है...
पैसा होके भी गरीब होने का एहसास होता है...
ज़िन्दगी रुक जाती है और तभी चलेगी जब छुट्टा मिलेगा...
फिर दर दर भटकता हूँ छुट्टे की उम्मीद की लौ हाथ में लिए...
जैसे कोई भिकारी घूमता है सिग्नल पे...
दुनिया का असली चेहरा तब सामने आता है....
फिर कही से कोई बन्दा आ के छुट्टा देता है... 
जैसे मानो खुदा का करिश्मा है...
एक ५०० का नोट खुदा के होने का एहसास दिलाता है...
और हमने  बेवजह पैसे को खुदा मान रखा है....

नज़्म...

जब ख़याल एहसास की हद पार कर जाए....
और ख़याल को वजूद मिल जाए....
ऐसे ही कुछ वक़्त में लफ्ज़ वजूद को पकड़ कर..
मेरे ज़हन में खलबली मचाते है....
बेकरार लफ्ज़ जबीं से बार बार टकराते है...
जैसे कोई शुक्राणु बेताब हो बाहर निकलने के लिए...
जब दो जिस्म अपने आप में घुल गए हो...
और फिर कागज़ की सफ़ेद सतह पर...
नज़्म अपनी पहली सांस लेती है...


तेरी दो आँखें...

बोहोत ही फरीद है तेरी दो आँखें...
हर बार मिलती है तो एक सवाल पूछती है...
जैसे हर गुनाह का सबब पूछती हों...
तेरी रूह इन आँखों में उतर आई है...
मैंने कई बार इनको चीखते सुना है...
न जाने क्या दर्द है, यूँ लगता है बस अब रो दोगी..
कुछ छुपे हुए राज़ है हर इंसान के बारे में..
जब भी देखती हो तो खामोशी से कान में कह जाती है...
ढलते सूरज को देखती हो तो जैसे दोनों आँखें ध्यान लगाए बैठी हो...
और चाँद जब आये आसमान पे तो किसी दोस्त की तरह बस  पलके झपकाती है...
बड़ी ही दिलचस्प है तेरी आँखें...
खूबसूरत है दो आँखें.. फिर रोज़ इन आँखों से जी भर के देखो तो मुझको...

बाप...

जब कभी कोई बाप अपने बेटे को फ़ोन करता है....
तो कुछ बेमानी से सवाल करता है...
जिनका एक सा ही जवाब होता है...
पर असल में आवाज़ की गहराई नापता है अपनी औलाद की..
न जाने कैसे बस आवाज़ से ही हर चीज़ का इल्म है हर बाप को...
शायद जब पैदा किया था तो अपनी रूह का एक हिस्सा काट के...
माँ की कोख में रख दिया हो...

नासूर...

कुछ रिश्ते वक़्त की राह पे चलते चलते नासूर बन जाते है...
बिन माँ बाप के बच्चों की तरह पेश आते है...
चीखते है, चिल्लाते है, आदम खोर बन जाते है....
कुछ दिन तो शांत रहता ऐसा रिश्ता जिस्म में...
पर कुछ रोज़ बाद जिस्म के बाहर बदन पे फोड़ा बन के बाहर आता है..
उस 'allergy' की तरह जो बार बार आती है...
बोहोत कोशिश करने के बाद काबू में आते है...
किसी बिगड़े हुए हाथी की तरह...
तेरे रिश्ते को मैंने ज़हन के एक कोने में...
ज़ब्त की जंजीरों में बाँध के रखा है...
जैसे किसी पागल को बाँध के रखते है....
और तेरा जमाल भी कमाल है...
हर रोज़ वोह रिश्ता साबित करने की कोशिश करता है के मै पागल नहीं हूँ...
और रोज़ उसे में एक 'injection' देके सुला देता हूँ...

Monday, January 23, 2012

बेमानी...

खोकला सा इश्क पनपता है आज कल
सतह पर रोशन पर अन्दर से घना अँधेरा है....
कोई किसी से प्यार करे तो 'they are going around'...
पहले इश्क में 'going around' होता था अब going around में इश्क ढूँढ़ते है...
कुछ साल पहले न जाने कितने लक़ब देते थे एक दुसरे को ...
अब 'dude' और 'honey' में ही नाम ख़तम हो जाते है....
जो पहले ख़त लिखा करते थे प्यार भरे...
आज कल चंद बेमानी से 'sms' में बट जाते है...
शायद इसी लिए पोस्ट ऑफिस में तन्हाई गूंजती है...
साहिल पे अक्सर हसीन जिंदगी की तामीर किया करते थे लोग...
अब किसी 'cafe' में बैठ के 'weekend planning' करते है....
पहले बरसात होती थी तो चाय के साथ कोई खूबसूरत गीत होता था 'balcony' में...
आज दो कॉफ़ी के कप बात करते है और खामोशी बेचैन रहती है....
हर कोई जैसे अपनी असलियत छुपा के चल रहा है...
जिस दिन सामने आ गई उस दिन 'breakup' हो जाता है...
न जाने कहा खो गया सा है इश्क...
जजबात तो आज भी वही है...
जरा जाके कोई समझाए इश्क के मानी क्या है...
पर कोई सुनेगा???
सभी है घाफिल ज़िन्दगी के जिंदा होने पर....







Sunday, January 22, 2012

ग़ज़ल...

जजबात की रीया शक्ल लगा के घुमते है लोग...
रिश्ते नहीं बस कुछ देर साथ निभाते है लोग...

हर बात छुपा ली है सबने अपने बारे में...
सिर्फ अपने ही अन्दर जीते मरते है लोग...

खुद ही समझा रखा है ज़हन को दुनिया के बारे में...
रूह को जंजीरों में बाँध के रखते है लोग...
 
इश्क तो तेरा अल्लाह पाक सा था 'पराशर'...
कमबख्त इश्क के नाम पे जी बहला लेते है लोग...