Saturday, September 24, 2011

ग़ज़ल...

हुस्न-ए-हर्फ़ छेड़ ऐ साकी, अक्ल की बात न कर,
जमाल-ए-महताब छाने दे, हिसाब की बात न कर..

मत सिखा मुझे तू नाज़ुक लहजे, प्यारी बातें,
दिल का पाक हूँ मै, रिया की बात न कर...

धड़कता है दिल मेरा तंग्दस्तों के लिए...
उनकी मुस्कान मेरा सरमाया है, सूद-ओ-जिया की बात न कर...

कहता है तू मुझे दीवाना उसका,
इश्क किया है मैंने इबादत की तरह, बेतरतीबी की बात न कर..

सोचता है तू किस कदर लाइल्म हूँ मै...
खुदा की राह पे चलता है  'पराशर', समाज की बात न कर... 

नज़्म...

एक नज़्म खो गयी है मेरी... 
मैंने लिख के रख दी थी कहीं...
धुंदली धुंदली याद आती है... अधूरी अधूरी सुनाई देती है...
किसीने चुरा ली है शायद... 
तेरा ज़िक्र था उसमे और खुशबू थी तुम्हारी आवाज़ की.. 
यादों के लिफाफों को खोल के देखा पर कहीं उसकी आहट नहीं थी...
किताबों की गलियों से गुज़रा तो पैरों के निशान तक नहीं थे....
बूढी हो गई थी, कुछ ही साल जिंदा रहती...
पर न जाने क्यों आज जेहेन के दरीचों से झांकती है...
ज्यादा गेहरा रिश्ता नहीं था उसके साथ...
पर आज जो बिछड़ा  हूँ  तो एक खलिश सी उभरी है दिल में...
हवाओं की तलाशी ली, खामोशी की छान बीन की...
अंधेरों से पूछा, उजालों को टटोल के देखा...
न जाने कहाँ खो गयी है...
फिर कल शब् जब तुम्हारे पास बैठा था...
तो तुम्हारे होटों पर छुप के बैठी थी वोह नज़्म...

इससे बेहतर भी उसका ठिकाना क्या होता..
मेरी हर नज़्म की इब्तेदा और इन्तहा तुम्ही से है.....