Tuesday, June 21, 2011

ज़िन्दगी ऐ ज़िन्दगी...

 पहले जो आशना थी जिंदगी अब अनजान रहके चुप चाप देखती है...
दिन कुछ यूँ गुज़रते थे के बस तारीख उलटे...
अब दिन का एक पहर गुज़रता है तो जैसे शारीर से कोई बोझ उतरे..
ख्वाइशों को मजबूरियों ने कैद करके रक्खा है....
एक खला है जिस्म में पूरी फैली हुई...
दिल की धड़कन चुप चाप गूंजती रहती है इसमें जैसे किसी गिरजे की जरस...
कई सालों बाद धुप को ठहरते देखा है मैंने अपने आँगन में...
आरज़ू अपाहिज है अब चल नहीं पाती ख़याल तक भी...
दिन ऐसा गुज़रता है के कभी ढलेगा नहीं... और रात ऐसी आती है के कोई सुबह नहीं होगी...
दुआ भी अब खुदा तक नहीं पहुँचती.. सुना है कुछ आवारा परिंदे बिच में ही लूट लेते है...
बेकल बेसहारा है नज़र.. तुझको तलाशती है हर दम...
वक़्त जो पहले नज़र नहीं आता था गुज़रते हुए...
अब घर में हर कोने में उसके कतरे नज़र आते है...
कोई कतरा उठा लिया और बस गुज़ार लिया...

जिंदगी तू क्यूँ इस कदर रूठी है मुझसे...
पास आके बैठ बात कर.. मै भी तो तेरा अपना हूँ...
मुझे बोहोत कुछ देना है तुझको.. उसका वादा निभाना है...
आ जिंदगी मुहसे प्यार कर....
जिंदगी ऐ जिंदगी मुझसे प्यार कर...

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