Friday, June 17, 2011

बम्बई...

कई बार बारिश में मुंबई की सड़कों पे चलते चलते
जब मै किसी पुरानी मिल से होके गुज़रता हूँ...
बारिश की कुछ सब्ज़ बूँदें जब मिल की दीवारों से टकराती है...
तो कुछ कतरें मन पे आ गिरते है.. और मुझे माजी की उन खोयी गलियों में ले जाती है...
जब मुंबई को बम्बई के नाम से जाना जाता था...
और आस पास के कस्बों से लोग रोटी कमाने के बहाने इस शेहेर की आबादी में शामिल होते थे..
मिल मजदूर का नाम मिलता था.. और मशीनों सा काम मिलता था..
पहले कुछ महीने साथी मजदुर किसी दोस्त की तरह मदत करते थे.. 
किसी ने रोटी दे दी.. किसी ने सब्जी.. टुकड़े इकठ्ठा करके खाना मिलता था...
एक छोटा से "गाला" होता था.. जहां नींद भी शिफ्ट में मिलती थी...
हर किसी का एक छोटा सा कोना होता था.. और कपडे टांगने के लिए एक छोटी सी जगह...
हर कोई कुछ पूँजी जमाकर गाँव लौटने की तमन्ना रखता था...
मिल की वोह खट खट की आवाज़ शुरुवात में शोर की तरह सुनाई देती थी..
फिर जैसे वोह आवाज़ इन मजदूरों के जिस्म में घुल कर खामोशी बन जाती थी...
अब मिल की जगह "mall" बन गए है...
पर आज भी कोई बूढा मिल मजदूर मिल के पास से गुज़रता है..
तो उसके कानो में आज भी वोह आवाज़ गूंजती है...
इन्ही लोगों ने बम्बई को मुंबई बनाया है...
सजा कर दुल्हन को जैसे कोई विदा कर दे...
कई बार मैंने मुंबई में बम्बई को महसूस किया है..
अनोखा शेहेर है मुंबई...
जितना माजी में रोशन है उतना ही मुस्तकबिल में नज़र आता है...


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