Friday, August 14, 2009

एक नज़्म

सावन के महीने में सूरज ढलने पर बरसात हो
बोहोत देर न हो कुछ देर ही हो
में भीगा हुआ घर पर आऊ
मेरे देर से आने पर तुम नाराज़ हो
ये तो तुम्हारी आवाज़ से ही पता चलता है

रूठ कर तुम खिड़की के पास खड़ी हो
इतने में रौशनी गूम हो जाए
मैं भी तुमसे रूठ के दुसरे कमरे में चला जाऊं
कुछ देर बाद घने अंधेरे में मैं तुम्हारे पास आऊ
चाँद को खिड़की में से देखूं
किसी मोबत्ति की हलकी सी लौ का साथ हो
और बस मैं गाता जाऊं
"चौधवीं का चाँद हो या आफताब हो, जो भी हो तुम खुदा की कसम लाजवाब हो"
और उसी वक्त रौशनी आए
और तुम मुस्कुरा दो तो क्या बात हो

No comments:

Post a Comment