जब ख़याल एहसास की हद पार कर जाए....
और ख़याल को वजूद मिल जाए....
ऐसे ही कुछ वक़्त में लफ्ज़ वजूद को पकड़ कर..
मेरे ज़हन में खलबली मचाते है....
बेकरार लफ्ज़ जबीं से बार बार टकराते है...
बेकरार लफ्ज़ जबीं से बार बार टकराते है...
जैसे कोई शुक्राणु बेताब हो बाहर निकलने के लिए...
जब दो जिस्म अपने आप में घुल गए हो...
और फिर कागज़ की सफ़ेद सतह पर...
नज़्म अपनी पहली सांस लेती है...
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