Saturday, August 28, 2010

सुबह...

कभी कभी सावन के महीने में सुबह ऐसी निकलती है...
के जैसे कल रात के साथ देर तक बात करके सुबह जल्दी उठी हो...
अभी अभी नहा के बाहर आई हुई सी लगती है और जिस्म अभी भी सुखा नहीं...
हलकी हलकी सी बूंदे गिरती रहती है मानो आसमान पर अपने कपडे सूखने के लिए रक्खे हो...
एक कोहरा सा छाया रहता है... शायद जिस चूले पर नहाने का पानी गरम किया था...
उसको बुझाना भूल गयी हो...
एक सौंधी सी हवा गुज़रती है जैसे किसी 'hair dryer' से अपने बाल सुखा रही हो...
साफ़ सफ़ेद बादलों के कपडे पेहेन के निकलती है काम पर...
और सूरज के उठने का इंतज़ार करती है जैसे बस स्टॉप पे कोई बस का इंतज़ार करे...
सूरज के उठते ही दिन के सब काम उसके हाथ पर रख कर....
शाम को लाने आसमान की तरफ निकल जाती है...

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