एक नज़्म मेरी आवाज़ में कैद है...
कागज़ पे तो मैंने उतार लिया है उसे…
पर अभी भी चिप्पक के बैठी है मेरे सिने से...
डरी हुई सी है....
फिर कानो पर जब तुम्हारी आवाज़ पड़ी तो मुस्कुराके के मुझसे बोली...
मेरी मंजिल आ गयी...
मेरी नज़्म को अपनी आवाज़ में कहो कभी...
के नज़्म आज़ाद हो.....
कागज़ पे तो मैंने उतार लिया है उसे…
पर अभी भी चिप्पक के बैठी है मेरे सिने से...
डरी हुई सी है....
फिर कानो पर जब तुम्हारी आवाज़ पड़ी तो मुस्कुराके के मुझसे बोली...
मेरी मंजिल आ गयी...
मेरी नज़्म को अपनी आवाज़ में कहो कभी...
के नज़्म आज़ाद हो.....
sunder nazm
ReplyDeletethank you...
ReplyDeletewaah...
ReplyDeletesiddharth bhai, gazab kar diya, bahut hee khoob likha hai yaar, keep it up, bahut depth hai aapke lekhan men
ReplyDelete