Sunday, August 11, 2013

मुक्त

कभी कभी यूँ भी  हो के जिस्म से निकल कर भी में तुझे देख पाऊँ 
अभी तक अपने अन्दर ही देखा है तुझे अब के बाहर भी तुझे देख पाऊँ 
देख पाता मेरे चेहरे को जब तुम मुस्कुराती हो 
महसूस किया है होश खोते हुए मैंने उस वक़्त 
देख पाऊँ तुझे  अकेले में जब  गुनगुनाती हो 
और जब फ़ोन पर कहूँ के तुम सबसे हसीन हो 
तब तुझे अपने होंट दबाते देख पाता 
पर कमबख्त इस जिस्म में कैद हूँ किसी मुजरिम की तरह 
जितना निकलने की कोशिश करू  उतना ही जकड़ा जाता हूँ 
शायद अब मौत के बाद ही तुझमे घुल पाउँगा और मुक्त हो जाऊंगा 

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