Tuesday, March 27, 2012

कब्रिस्तान...

हर शाम जब मै सैर पे निकलता हूँ...
तो हर रोज़ मेरे घर के पास वाले कब्रिस्तान से होके गुज़रता हूँ...
एक छोटा सा शेहेर सा लगता है...
हर एक की कब्र है घरों की तरह..
और हर रोज़ बढ़ता हुआ नज़र आता है यह कब्रिस्तान...
जैसे मुंबई शेहेर हर रोज़ फैलता है...
एक बदबूदार खामोशी फैली है हवा में यहाँ...
बोहोत सारी लाशों का यह शेहेर है...
बोलता कुछ नहीं पर बोहोत आवाज़ करता है..
जब जिस्म को तुने नश्वर कहा था...
तो ये अजीब रिवाज क्यूँ है दफनाने का या खुदा...
और क्या कैफियत है तेरे इस जहां की...
जिन्दा इंसान को घर नहीं और कब्र मुफ्त में मिले...


एक दिन सोचता हूँ मै यूँ भी होगा...
यह आबादी का टाइम बम फूटेगा किसी दिन...
और हर जगह बस कब्रें ही नज़र आंएगी... 
क्या पता तब मेरे इस हिन्दुस्तान को कब्रिस्तान कह दे लोग....
 

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