फिल्मे तो कई बन चुकी और कई बनेंगी...
पर असली फिल्म वो है जो ख़तम होते ही...
जिस्म-ओ-जान में घुल जाए जब कोई 'theatre' की सीढियां उतरे...
सीढियां उतरते उतरते जैसे उसका खुमार ज़हन पे चढ़ जाए...
जो रात में तकिये पे एक हलकी सी मुस्कान लाये...
तुम्हारे वजूद को टटोल कर कहीं दूर ले जाए...
और फिर धीरे धीरे ज़हन के कोने में जाके बस जाए...
और जब कभी मौका मिले तो अपनी छाप फिर जबान पे छोड़ जाए...
जैसे शोले फिल्म का कोई 'dialogue'...
फिल्म वो नहीं जो सोचने पे मजबूर करे...
फिल्म वो है जो सोच में घुल जाए और हकीक़त को थोडा और फिल्मी बनाए...
पर असली फिल्म वो है जो ख़तम होते ही...
जिस्म-ओ-जान में घुल जाए जब कोई 'theatre' की सीढियां उतरे...
सीढियां उतरते उतरते जैसे उसका खुमार ज़हन पे चढ़ जाए...
जो रात में तकिये पे एक हलकी सी मुस्कान लाये...
तुम्हारे वजूद को टटोल कर कहीं दूर ले जाए...
और फिर धीरे धीरे ज़हन के कोने में जाके बस जाए...
और जब कभी मौका मिले तो अपनी छाप फिर जबान पे छोड़ जाए...
जैसे शोले फिल्म का कोई 'dialogue'...
फिल्म वो नहीं जो सोचने पे मजबूर करे...
फिल्म वो है जो सोच में घुल जाए और हकीक़त को थोडा और फिल्मी बनाए...
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