Tuesday, September 14, 2010

अक्स..

मै जानता हूँ के मै सबसे अलग हूँ.. पर सबसे अलग बन नहीं पाता.. बनू तो कैसे बनू....
मैंने देखा है मेरी सोच को औरों से अलग... पर सबसे अलग हो नहीं पाती... है तो कैसे है..
ख़याल की मेरे सूरत सबसे जुदा है... पर सबसे अलग दिखती नहीं... है तो कहाँ है...
रिश्तों की परिभाषा मेरी औरों से हटके है.. पर औरों से अलग हो नहीं पाती... हो तो कैसे हो...
अजीब मंज़र अक्सर मै देखता हूँ...
मेरा अक्स और मै एक नहीं...
ये किसकी परछाई है हम दोनों में..
कितनी कोशिश की हटाने की पर उसकी गहरी छाप मेरे अक्स पर बढती ही जाती है..
कभी आके तुम आईने के सामने खड़ी हो जाओ...
के मै मुझसे मिल जाऊं...

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