आज भी सर्दियों का वोह दिन याद आता है.. जब मैंने तुमको पहली बार देखा था...
जब तुम वोह सफ़ेद सलवार-कमीज़ और लहेरिया दुपट्टा पेहेन के घर से निकली थी..
उस दुपट्टे को तुम मफलर की तरह ओढ़ी हुई थी...
ऐसा लग रहा था जैसे दिल्ली की सारी सर्दी सहमी हुई है और उस मफलर से जैसे उसका हौसला बढ़ रहा हो...
तुम्हारे सारे बदन को छुने को जैसे कोहरा बेकरार था...
और तुम कोहरे को हटा के आगे चल रही थी जैसे कोई धुएं को हटाए..
मेरी आँखों को सिर्फ तुम नज़र आ रही थी और मै गा रहा था...
'धागे तोड़ लाओ चांदनी से नूर के... घूंघट ही बना लो रोशनी से नूर के...'
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