कभी कभी दिन भी बड़े आलसी निकलते है...
सूरज ऐसे निकलता है जैसे बादलों की चादर ओढ़ के सोया पड़ा हो...
हवाएं ऐसे चलती है जैसे कोई खाने के बाद टेहेलता हो...
दोपहर ऐसे रुकी रुकी सी लगाती है जैसे शतरंज का खेल....
शाम भी ऐसे आती है जैसे सारा दिन उसने जाग के काटा हो...
और चाँद ऐसे उगता है जैसे बोहोत ज्यादा सोने के बाद नहा के 'weekend' पार्टी में जा रहा हो..
रात ऐसे उतरती है जैसे कोई ख्वाब उतारे अरमानो के साहिल से....
सारे माहोल में एक अजीब सी 'lethargy' फ़ैल जाती है...
आज कल पूरी कायनात का '5 day working' है....
haha......mast hai bhai
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