Saturday, September 24, 2011

ग़ज़ल...

हुस्न-ए-हर्फ़ छेड़ ऐ साकी, अक्ल की बात न कर,
जमाल-ए-महताब छाने दे, हिसाब की बात न कर..

मत सिखा मुझे तू नाज़ुक लहजे, प्यारी बातें,
दिल का पाक हूँ मै, रिया की बात न कर...

धड़कता है दिल मेरा तंग्दस्तों के लिए...
उनकी मुस्कान मेरा सरमाया है, सूद-ओ-जिया की बात न कर...

कहता है तू मुझे दीवाना उसका,
इश्क किया है मैंने इबादत की तरह, बेतरतीबी की बात न कर..

सोचता है तू किस कदर लाइल्म हूँ मै...
खुदा की राह पे चलता है  'पराशर', समाज की बात न कर... 

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