Saturday, September 24, 2011

नज़्म...

एक नज़्म खो गयी है मेरी... 
मैंने लिख के रख दी थी कहीं...
धुंदली धुंदली याद आती है... अधूरी अधूरी सुनाई देती है...
किसीने चुरा ली है शायद... 
तेरा ज़िक्र था उसमे और खुशबू थी तुम्हारी आवाज़ की.. 
यादों के लिफाफों को खोल के देखा पर कहीं उसकी आहट नहीं थी...
किताबों की गलियों से गुज़रा तो पैरों के निशान तक नहीं थे....
बूढी हो गई थी, कुछ ही साल जिंदा रहती...
पर न जाने क्यों आज जेहेन के दरीचों से झांकती है...
ज्यादा गेहरा रिश्ता नहीं था उसके साथ...
पर आज जो बिछड़ा  हूँ  तो एक खलिश सी उभरी है दिल में...
हवाओं की तलाशी ली, खामोशी की छान बीन की...
अंधेरों से पूछा, उजालों को टटोल के देखा...
न जाने कहाँ खो गयी है...
फिर कल शब् जब तुम्हारे पास बैठा था...
तो तुम्हारे होटों पर छुप के बैठी थी वोह नज़्म...

इससे बेहतर भी उसका ठिकाना क्या होता..
मेरी हर नज़्म की इब्तेदा और इन्तहा तुम्ही से है.....

1 comment:

  1. Parashar ji: bahot hi sundar rachana hai aapki... dumbstruck!!
    rucha

    ReplyDelete