Wednesday, May 1, 2013

कैफियत....

अब न कोई माज़ी  है न मुस्तकबिल
न कोई दर्द है न कोई मुदावा
न कोई ख्वाइश है  न ही कोई सपना
रिश्तों के सारे ताने बाने अब सुलझे है
ज़हन और जिस्म अब पराये लगते है 
बस सांस चलती है जिस्म के खाली कमरे में टिक टिक करते हुए
हर पल गुज़रते देख रहा हूँ वक़्त की बिसात पर
बस एक ही है सच्चाई इस पल की
जिसमे पूरा घुल गया हूँ
पूरा ब्रह्माण्ड जैसे एक ही पल का मोहताज है
हर पल बदलती है यह कायनात पर सच्चाई एक ही है
वही है परमात्मा वही है इश्वर वही है मुझमे 
बस एक ही सवाल है जो दिन रात सताता है
कौन हूँ मै?


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